________________ 286 योगबिंदु विवेचन : तत्त्वज्ञाताओं ने मुक्ति को अनेक नामों से सम्बोधित किया है / वेदान्ती "अविद्या के वियोग" को ही "मुक्ति" कहते हैं / बौद्ध मानते हैं कि जब "बुद्धि पूर्ण विकसित" हो जाती है तो "मुक्ति" कही जाती है। जैन लोग मानते है कि जब कृत्स्न-संपूर्ण कर्मों का सर्वथा क्षयनाश हो जाता है तब आत्मा की अवस्था का वह सर्वकर्म अभावरूप परिणाम" ही वास्तव में "मुक्ति" है / इस प्रकार मुक्ति के अनेक नाम होने पर भी सामान्यतः वस्तुस्वरूप वह एक ही है // 494 // शैलेशीसंज्ञिताच्चेह, समाधेरूपजायते / कृत्स्नकर्मक्षयः सोऽयं, गीयते वृत्तिसंक्षयः // 495 / / अर्थ : शैलेशी नामकी समाधि जो (केवली भगवन्तों को अन्त समय में) पैदा होती है; वह सर्वकर्मों के क्षय से होती है / यहाँ (योगभाषा में) उसे ही वृत्तिसंक्षय कहा है // 495 // विवेचन : शिलाओं के समूहरूप सामान्यपर्वत शैल कहे जाते हैं, और (शैलानामीशः इति शैलेश) पर्वतों में सर्वोत्कृष्ट राजा समान मेरूपर्वत-शैलेश कहा जाता है। मेरु जैसी अकम्प, अङिग, अविचलित अवस्था को उपलब्ध करने वाले संयोगी केवली भगवान आत्म प्रदेशों से सर्व कर्मदलों का क्षय-वियोग नाश करते हुये 'अ इ उ ऋ लु' इन पांच हस्वाक्षरों के उच्चारण कालमात्र जितनी अन्तिम समाधि को अविचलित भाव से करते हैं, और इस समाधि से शेष रहे हुये सर्व कर्मों का सर्वथा क्षय करते हैं / ऐसी शुक्लध्यान के अन्तिम भागरूप अवस्था को जैनाचार्य शैलेशी समाधि कहते हैं / योगभाषा में उसे शैलेशीकरण भी कहते हैं / योगदर्शन-कार इसे राजयोग कहते हैं / श्रीहरिभद्रसूरिजी इसे वृत्तिसंक्षय समाधि कहते हैं / भाव यह है कि सयोगी केवली की अन्त समय की जो समाधि होती है उसे शैलेशी समाधि कहते हैं, और इसी को यहा हरिभद्रसूरिजी ने वृत्तिसंक्षय नाम दिया है // 495 // तथा तथा क्रियाविष्टः, समाधिरभिधीयते / / निष्ठाप्राप्तस्तु योगज्ञैर्मुक्तिरेष उदाहृतः // 496 // अर्थ : (कर्मक्षयार्थ किये गये अनुष्ठान रूप) तथाप्रकार की क्रिया प्रवृत्ति का परिपाक होने पर जो दशा होती है वह 'समाधि' कही जाती है, और कर्मवियोगरूप स्थिति के परिपाक को योगी 'मुक्ति' कहते हैं // 496 // विवेचन : आत्मा को परिणामी मानने पर ही वह उत्तरोत्तर शुद्ध, शुद्धतर, शुद्धतम अवस्था को प्राप्त करके, योग पर्यन्त पहुंच सकता है। यही व्यवस्था परमत वाले भी स्वीकार करते हैं / 'अविद्या' का वियोग, 'बुद्धि' आदि नाम जो उन्होंने दिये हैं, वह भी यही सिद्ध करता है / कारण कि कर्म क्षयार्थ अमुक क्रिया-अनुष्ठान करते-करते आत्मा की अवस्थान्तरों का परिपाक ही समाधि