________________ 284 योगबिंदु अनादिकालीन कर्मक्लेशों को दूर करने के लिये जिस योगमार्ग का प्रतिपादन किया है और तत्त्वार्थसत्र में श्री उमास्वाति वाचक प्रवर ने जो योग "आस्रवनिरोधः संवरः / स गुप्ति समितिधर्मानु प्रेक्षापरिषहजय चारित्रैः, तपसा, च निर्जरा सम्यक् योग निग्रहो गुप्तिः", इत्यादि प्रतिपादित किया है, अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता, वृत्तिसंक्षय आदि योगमार्ग बताया है / योग के इन साधनों के द्वारा आत्मा पर्यायरूप अनित्य संसारत्व अवस्था का त्याग करके, नित्य मोक्ष अवस्था को प्राप्त करती है। अतः द्रव्यत्वरूप से आत्मा नित्य होने पर भी उसके पर्याय तो बदलते ही रहते हैं। पर्यायों का बदलना ही उसकी विचित्रता है। अतः आत्मा को कथंचिद् नित्यानित्यपरिणामी मानने से ही योगमार्ग की सिद्धि होती है // 490 // तत्स्वभावत्वतो यस्मादस्य तात्त्विक एव हि / क्लिष्टस्तदन्यसंयोगात्, परिणामो भवावहः // 491 // अर्थ : इसका (आत्मा का) परिणामी स्वभाव ही तात्त्विक-यथार्थ है क्योंकि कर्म अन्य संयोग से (आत्मा का) जो क्लिष्ट परिणाम है; वह संसार का हेतु है॥४९१।। विवेचन : आत्मादि सर्व द्रव्य स्वाभाविक रूप से ही निश्चित परिणामी है, क्योंकि जैसे क्लिष्ट कर्म सम्बंध से भवपरम्परा के परिणाम घटित होते हैं, वैसे ही कर्मसमूह का नाश होने पर मोक्ष स्वरूपता भी घटित होती है। कहने का तात्पर्य यह है कि आत्मा का परिणामी स्वभाव तात्त्विक-यथार्थ है, औपचारिक आरोपित किया हुआ नहीं है। यही कारण है कि जब तक जीवात्मा की अनादिकाल से परम्परागत कर्मबंधन की योग्यता रहती है, तब तक आत्मा अक्लिष्ट-क्लिष्ट शुभाशुभ अध्यवसायों द्वारा जैसा शुभाशुभ कर्म बांधती है, उसके अनुसार वह आत्मा अनेक प्रकार के चौरासी लाख जीवयोनि से युक्त चारगति में नये-नये जन्म मरण रूप परिणामों को धारण करती हुई संसार में भटकती है / अतः अशुभ अध्यवसाय से युक्त जो मन, वचन, काया का अन्य अवस्थारूप परिणामित्वभाव है वही संसार का हेतु है। ऐसे क्लिष्ट परिणामों का त्याग करके, संवर निर्जरा युक्त महाव्रत तप, ध्यान, समता, समाधि और योग द्वारा सर्वकर्मों का क्षय करके, मोक्ष को प्राप्त करती है। उसमें पारिणामिक स्वभावरूप भव्यत्व स्वभाव ही कारण है // 491 // जैसा उपर बता चुके हैं कि आत्मा को परिणामी मानने पर ही संसार और मोक्ष की व्यवस्था घटित होती है। क्योंकि क्लिष्ट परिणाम संसार का हेतु है, और क्लिष्ट परिणामों से मुक्त होना ही मुक्ति है / योग को उस क्लिष्ट परिणाम को नाश करने का साधन यहां बताया है : स योगाभ्यासजेयो यत्तत्क्षयोपशमादितः / योगेऽपि मुख्य एवेह, शुद्धयवस्थास्वलक्षणः // 492 // अर्थ : क्षयोपशमादिभाव से (आत्मा की) शुद्धावस्थारूप लक्षणवाला योग यहाँ मुख्य है