________________ योगबिंदु 283 का त्याग और उत्तर परिणाम की प्राप्तिरूप विचित्र - अलग-अलग कार्य कारणभाव को ग्रहण न करने से मोक्ष के विषय को ग्रहण नहीं कर सकता। अत: वह कल्पनामात्र सिद्ध होगा, वास्तविक पारमार्थिक नहीं / कहने का तात्पर्य यह है कि अगर नित्य आत्मा के सुख-दुःख काल्पनिक है, तो उन काल्पनिक सुख-दुःख से मुक्त होने के लिये जो योगमार्ग की कल्पना है, वह भी काल्पनिक ही सिद्ध होगी वास्तविक नहीं, क्योंकि आत्मा एक ही स्वरूप में स्थिर है // 488 // दिदृक्षादिनिवृत्त्यादि, पूर्वसूर्युदितं तथा / आत्मनोऽपरिणामित्वे, सर्वमेतदपार्थकम् // 489 // अर्थ : दिदृक्षादि की निवृत्ति आदि जो पूर्वाचार्यों द्वारा बतायी गयी है, वह आत्मा को अपरिणामी मानने से व्यर्थ सिद्ध होगी // 489 / / विवेचन : पतञ्जलि आदि पूर्वाचार्यों ने दिदृक्षादि अर्थात् खाने, पीने, देखने, बोलने, जानने आदि की इन्द्रियजन्य वासना की निवृत्ति के लिये जिस योगमार्ग की प्ररूपणा की है, अर्थात् उन्होंने बताया है कि इन्द्रियजन्य वासनाओं की निवृत्ति और मोक्ष की प्राप्ति योग मार्ग से होती है। उनका बताया हुआ योगमार्ग आत्मा को अपरिणामी मानने से निरर्थक सिद्ध होता है। क्योंकि उनके मत से : ___ "अपरिच्युतानुत्पन्न स्थिरैकस्वरूपे नित्यः" ऐसा नित्य कभी भी पूर्व स्वरूप का त्याग और नये मोक्षस्वरूप की प्राप्ति नहीं कर सकता / इसलिये उनकी आत्मार्थ कही गई योगमार्ग की प्रवृत्ति निष्फल सिद्ध होती है // 489 // / परिणामिन्यतो नीत्या, चित्रभावे तथाऽऽत्मनि / अवस्थाभेदसङ्गत्या, योगमार्गस्य सम्भवः // 490 // अर्थ : अतः आत्मा को पूर्ववत् परिणामी और चित्रस्वभावी मानने पर अवस्थाभेद की संगति से युक्तिपूर्वक (न्याय से) योगमार्ग सिद्ध-संभव होता है // 490 // विवेचन : जब तक आत्मा को परिणामी स्वभावी न माने तब तक योगमार्ग का संभव नहीं / आत्मा को द्रव्यत्व रूप से नित्य और पर्याय रूप से अनित्य (परिणामी) और चित्र स्वभावी मानने पर ही अवस्थाभेद की संगति - पूर्व अवस्था का त्याग और उत्तर अवस्था की प्राप्तिरूप पूर्वापर अवस्था विशेष के लाभ से, युक्तिपूर्वक योगमार्ग की सिद्धि होती है। महर्षि पतञ्जलि ने भी कहा है : "क्लिष्ट चित्तवृत्तिनिरोधः योगः"