________________ 282 योगबिंदु कार्य कारण भाव का संबंध घटित नहीं होता / यदि आप योग मार्ग को मोक्ष हेतु कल्पते हैं तो यह योग्य नहीं है। क्योंकि आप वस्तु मात्र को अपरिणामी स्वभाव वाला मानने के कारण अविचलित कुटस्थ ऐसी आत्मा योग मार्ग का विषय कैसे बन सकती है। जो पदार्थ एकांत नित्य हो तो परिणामीत्व स्वभाव को प्राप्त नहीं होने से पूर्व परिणाम का त्याग तथा उत्तर परिणाम की प्राप्ति स्वरूप अलगअलग कार्य कारण भाव को प्राप्त नहीं होने से मोक्ष के विषय को ग्रहण नहीं करते / नपस्येवाभिधानाद् यः, साताबन्धः प्रकीर्त्यते / अहिशङ्काविषज्ञाताच्चेतरोऽसौ निरर्थकः // 487 // अर्थ : राजा के नाम से शातावेदनीय की भांति, सर्पदंश के विषज्ञान से अशातावेदनीय भी निरर्थक है // 487 // विवेचन : आत्मा को एकान्त नित्य मानने से, 'मैं राजा हूँ' इस प्रकार के सम्बोधन से जो शातावेदनीय का - सुख का अनुभव होता है और उसी व्यक्ति को सर्पदंश के ज्ञान से जो अशाता वेदनीय-दुःख का अनुभव होता है दोनों निरर्थक हैं, क्योंकि एकान्तनित्य में दोनों अनुभव घटते नहीं। अगर एकान्तनित्य आत्मा में सुख का अनुभव होता है, तो वह भी नित्य होना चाहिये / उसमें दुःख का अनुभव कैसे हो सकता है ? अगर उसमें दुःख का भी अनुभव होता है, तो वह नित्य आत्मा एकान्त एक स्वभाव वाला कैसे हुआ ? अगर आप एकान्त नित्य आत्मा के इन सुख-दुःखों को काल्पनिक मानो, तो मुक्तिमार्ग भी काल्पनिक सिद्ध होगा // 487 // एवं च योगमार्गोऽपि मुक्तये यः प्रकल्प्यते / सोऽपि निविषयत्वेन, कल्पनामात्रभद्रकः // 488 // अर्थ : ऐसे तो मुक्ति के लिये जिस योगमार्ग की कल्पना की गई है; वह भी निविषय होने से कल्पनामात्र सिद्ध होगा // 488 / / विवेचन : आत्मा के एकान्तनित्य मानने से आप वेदान्तियों ने जिस योगमार्ग की कल्पना को है वह भी कैसे सिद्ध होगी? क्योंकि ऐसा मानने से भव का कारणरूप कौन सा हेतु होगा? और मुक्ति का कारणरूप कौन सा हेतु होगा? अगर आप संसारनाश के लिये योगमार्ग की कल्पना करते हैं तो वह उचित नहीं, क्योंकि नित्य एक स्वरूप कूटस्थ स्थिति में रहने से आत्मा में परिणामिकता का अभाव सिद्ध होता है, और उसके बिना कार्य-कारण का सम्बंध घटित नहीं होता अगर योगमार्ग को मोक्ष के लिये मानते हो, तो भी योग्य नहीं है, क्योंकि आप वस्तुमात्र को अपरिणामी स्वभाव वाला मानते हैं। फिर ऐसा अविचलित कूटस्थ आत्मा योगमार्ग का विषय कैसे हो सकता है ? जो पदार्थ एकान्तनित्य हो वे परिणामित्व स्वभाव को नहीं पा सकते / पूर्व परिणाम