________________ योगबिंदु 281 कभी भी विचित्रता नहीं आ सकती / आम के बीज से आम की उत्पत्ति होती है परन्तु बबुल से आम की उत्पत्ति असंभव है / इसी प्रकार यदि आत्मा एकान्त एकस्वभावी है तो वह सर्वदा एक ही प्रकार के अध्यवसाय से युक्त होने से एक ही प्रकार का कर्मबंध करेगा। संसार में जो विविधताविचित्रता दिखाई देती है, उसमें विचित्र कारण उपादानरूप से अवश्यमेव होते हैं। परन्तु तुम्हारी एकान्तनित्य एकस्वभावी आत्मा विचित्र कर्मबंधों को कैसे बांधेगी, जो कि संसार में सभी की अनुभूत वस्तु तथ्य है, उसे कैसे टालेगें ? संसार की विचित्रता को कैसे घटित करवायेगें // 485 // बन्धाच्च भवसंसिद्धिः, सम्बन्धश्चित्रकार्यतः / तस्यैकान्तैकभावत्वे, न त्वेषोऽप्यनिबन्धनः // 486 // अर्थ : आत्मा को कर्म का बंध मानने से संसार में परिभ्रमण संभवित होता है, वह भी अलगअलग कर्मों के संबंध से ही होता है। किन्तु एकान्त एक स्वभाववाला नित्य मानने पर संभव सिद्ध नहीं होता / साथ ही संसार संबंध का त्याग कर मुक्त होने का भी संबंध सिद्ध नहीं होता / विवेचन : जीवात्मा मनोयोग से बड़े ही विचित्र स्वरूप वाला और अनेक प्रकार के शुभअशुभ अध्यवसाय, वचन एवं काया की क्रिया से ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अंतराय, नामकर्म, गोत्रकर्म, आयुष्यकर्म तथा वेदनीय कर्म के समूह से पूर्व काल में जिस प्रकार और जैसी आत्म परिणामी कर्मों बांधा हो उन कर्मों का उदय होने पर अलग-अलग प्रकार के जन्म धारण कर नये संयोगों में संबंध प्राप्त कर वैसे-वैसे कर्मों को भोगता है। इस प्रकार जीवात्मा संसार में जन्म, मरण, आधि, व्याधि, उपाधि भोगता है, यह बात सिद्ध होती है / यह जन्म-मरण रूप जो विचित्र कार्य होता है उससे ही संसार अनादि की परंपरा से प्रवाह रूप में चला आ रहा है। यह सिद्ध होता है / इसका कारण राग-द्वेष रूपी मोह ही क्योंकि "अविचित्रकारणात् विचित्र कार्योत्पत्तिः भवति"। विचित्र नहीं अर्थात् एक समान कारणों से विचित्र कार्यों की उत्पत्ति होती है ऐसा जैन मत नहीं स्वीकारता / क्यों कि बबूल के बीज से आम की उत्पत्ति नहीं होती / इस प्रकार विचित्र कारण से विचित्र प्रकार के भोग जीवों को मिलते है ऐसा सिद्ध होने पर आत्मा के स्वरूप की क्या अवस्था होगी बताने के लिए आगे कहते हैं - इसी प्रकार जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि आत्मा आदि सभी द्रव्य अनेक स्वभाव वाले और परिणाम को प्राप्त होने से कार्य कारण रूप अर्थ स्वरूप की सिद्धि होती है तो भी हे वेदांतिक पंडित प्रवर ! आप जिसे योग मार्ग कहते हैं उसमे भव (जन्म) एवं मुक्ति के क्या कारण हेतु होते हैं ? साथ ही संसार के नाश के लिए यदि योग मार्ग कल्पता है तो वह योग्य नहीं है / क्योंकि यदि एक ही स्वरूप में यदि आत्मादिक अर्थ रहता हो तो पारिणामिकता का अभाव होगा। इससे