________________ योगबिंदु 279 भोक्तृत्व स्वभाव मानने से तुम्हारे अद्वैत् सिद्धान्तानुसार विरोध आता है / याने जहाँ कर्तृत्व हो वहीं भोक्तृत्व नहीं; वहाँ भोक्तृत्व हो वहाँ कर्तृत्व नहीं रह सकता / दोनों का विरोध आता है। अद्वैत सिद्धान्त नष्ट हो जाता है, जो आप को इष्ट नहीं / यदि चौथा विकल्प आत्मा में अनुभयभाव-कर्तृत्वभोक्तृत्व का अभाव माने, तो वह भी इष्ट नहीं / कारण कि कर्तृत्व और भोक्तृत्व स्वभाव का अभाव मानने से तो वस्तुस्वरूप का ही अभाव सिद्ध होता है। जैसे वंध्या को पुत्र होना असंभव है, वैसे ही कर्तृत्वभोक्तृत्वस्वभाव बिना आत्मसत्ता का ही होना असंभव है। इस प्रकार चारों विकल्प विरोध और असंभवदोष से युक्त है // 481 // यत्तथोभयभावत्वेऽप्यभ्युपेतं विरुध्यते / परिणामित्वसङ्गत्या, न त्वागोऽत्रापरोऽपि वः // 482 // अर्थ : उभयस्वभाव को मानने पर जो विरोध आता है, परिणामित्वस्वभाव अंगीकार करने से वह दोष भी तुम्हारे नहीं रहता // 482 // विवेचन : इस प्रकार आत्मा में एकान्त कर्तृत्व और एकान्त भोक्तृत्व उभय स्वभाव स्वीकार करने से आप के अद्वैतवाद सिद्धान्तानुसार विरोध आता है। और अनुभय स्वभाव को मानने पर आत्म स्वरूप का ही अभाव सिद्ध होता है। इस प्रकार तुम्हारे चारों विकल्प दोष युक्त है, अथवा इस प्रकार उभय स्वभाव मानने पर तुम्हारे मत से विरोध-आता है / और अनुभय स्वभाव वस्तु स्वरूप का ही विनाश करता है / परन्तु यदि तुम अद्वैतवादी एकान्त नित्यत्व का कदाग्रह छोड़कर, आत्मादि द्रव्यों में परिणामीत्वस्वभाव को अंगीकार करो तो सब यथार्थ घटित हो जाता है / आत्मा द्रव्यत्व रूप से नित्य होने पर भी पर्याय स्वभाव से नये-नये परिणामों को - पर्यायों को धारण करती है और वैसा परिणामी स्वभाव होने से ही पूर्व अवस्था का त्याग करके, उत्तर अवस्था का स्वीकार करती है। इस प्रकार आप के कर्तृत्व और भोक्तृत्व स्वभाव वाले आत्मा की सिद्धि भलीभांति हो जाती है और विरोध असंभव आदि दोष भी नहीं रहते // 482 // एकान्तनित्यतायां तु, तत्तथैकत्वभावतः / भवापवर्गभेदोऽपि, न मुख्य उपपद्यते // 483 // अर्थ : (आत्मा को) एकान्त नित्य मानने पर एकस्वभाव में स्थिर रहने वाली होने से संसार और मोक्ष का मुख्य भेद भी घटित होता नहीं // 483 // विवेचन : एकान्त नित्य का लक्षण है कि एक ही रूप - एक ही स्वभाव में स्थिर रहना परन्तु आत्मा तो संसार की विविध योनियों में पूर्व अवस्था का त्याग करके, उत्तर अवस्था को प्राप्त करती है। इसी प्रकार संसार की पूर्व अवस्था को छोड़कर, पुण्यकार्य करके मोक्ष की भावी स्थिति