________________ 278 योगबिंदु कर्म न करने का स्वभाव और अभोक्तृत्व कर्म न भोगने का स्वभाव जो भुक्तावस्था में होता है कैसे घटित होगा? इस प्रकार संसार और मुक्ति की व्यवस्था कैसे घटित होगी? इन चारों विकल्पों में से कोई भी विकल्प घटित नहीं होता अगर किसी विकल्प को घटित करने का प्रयत्न करें तो एकान्त नित्यत्व में बाधा आती है, नित्यत्व नष्ट हो जाता है // 479 / / एकान्तकर्तृभावत्वे, कथं भोक्तृत्वसम्भवः / भोक्तृभावनियोगेऽपि, कर्तृत्वं ननु दुःस्थितम् // 480 // अर्थ : एकान्त कर्तृत्व स्वभाव मानने पर भोक्तृत्व स्वभाव कैसे संभव है ? और एकान्त भोक्तृत्व स्वभाव मानने पर कर्तृत्व स्वभाव कैसे घट सकता है, स्थिर रह सकता है ? // 480 // विवेचन : हे वेदान्तियों ! अगर तुम आत्मा को एकान्त नित्य कर्ता मानते हो तो उस आत्मा में अन्य स्वभाव का अभाव मानना पड़ेगा इसलिये भोक्तृत्वस्वभाव रूप अन्य स्वभाव का अभाव होगा / क्योंकि आप आत्मद्रव्य में एकान्त - एक ही स्वभाव को स्वीकार करते हैं / इसलिये अगर आत्मा एकान्त कर्तृत्व स्वभाव वाला - शुभाशुभ कर्म कारक स्वभाववाला हो तो वह कर्म-शुभाशुभ क्रिया-अनुष्ठान करके कर्तृत्व भोक्तृत्व से भिन्न है। कदाचिद् तुम एकान्त भोक्तृत्व स्वभाव मान लो तो आत्मा में भोक्तृत्व सम्बंध रहेगा कर्तृत्व स्वभाव का अभाव हो जायेगा / क्योंकि आप आत्मा को एकान्त - एक स्वभाववाला मानते हैं और ये दोनों परस्पर विरोधी हैं / इस प्रकार एकान्तभाव से कुछ भी निष्पन्न-सिद्ध नहीं होता // 480 // न चाकृतस्य भोगोऽस्ति, कृतं वाऽभोगमित्यपि / उभयानुभयभावत्वे, विरोधासंभवौ ध्रुवौ // 481 // अर्थ : अकृत का भोग होता नहीं, और कृत का भोग टलता नहीं / उभयभाव और अनुभयभाव में विरोध और असंभवदोष निश्चित है // 481 // विवेचन : हे एकान्तनित्यवादी वेदान्तियों ! आत्मा को एकान्तकर्तृत्व स्वभाव वाला मानने से भोक्तृत्व नहीं घटित होता और एकान्त भोक्तृत्व स्वभाव वाला मानने से कर्तृत्व नहीं घटता / क्योंकि अकृत का भोग कभी हो नहीं सकता और कृतकर्म कभी टल नहीं सकते / किये कर्म अवश्यमेव भोगने ही पड़ते हैं। कहा भी है: कृतस्य कर्मणो भोगोऽस्ति / न च अकृतस्य कर्मणोऽस्ति भोगः // ___ शुभाशुभ कर्मों को जो जीव बांधता है, उसका फल उसे अवश्य मिलता है। और जो कर्म अकृत हो उसका भोग भी नहीं होता / अब तीसरे विकल्प को बताते हैं कि उभय स्वभाव-कर्तृत्व