________________ 277 योगबिंदु किसी भी कारणरूप हेतु की अपेक्षा नहीं रहती / और जिस को उत्पन्न करने में अन्य की सहायता लेनी पड़े वह कथंचिद् नित्यानित्य पदार्थ है / याने द्रव्यत्व की अपेक्षा से नित्य और परिणामरूप पर्यायत्व की अपेक्षा से अनित्य / इस प्रकार कथंचिद् दृष्टि से आत्मा को नित्यानित्य मानने से ही सब सिद्ध होता है क्षणिकवाद से या मात्र ज्ञान से सिद्ध नहीं होता // 477|| एवमेकान्तनित्योऽपि, हन्तात्मा नोपपद्यते / स्थिरस्वभाव एकान्ताद्, यतो नित्योऽभिधीयते // 478 // अर्थ : इस प्रकार आत्मा एकान्तनित्य भी सिद्ध नहीं होती क्योंकि एकान्त स्थिर स्वभाववाले को ही नित्य कहते हैं // 478 // विवेचन : बौद्धों के एकान्त अनित्यवाद का निरसन करके ग्रंथकार अब एकान्त नित्यवादी वेदान्तियों की ओर आते हैं और कहते हैं कि बौद्धों के एकान्त अनित्य की भांति तुम्हारा एकान्त नित्यवाद भी यथार्थ नहीं क्योंकि आत्मा को एकान्त नित्य मानने से आत्मा के नये-नये परिणामों की परावृत्तिरूप पर्याय-स्वभाव सिद्ध नहीं होता / अर्थात् यदि आत्मा को एकान्तनित्य याने स्थिररूपएक ही स्वभाव में रहने वाली माने तो संसारीत्व भाव का त्याग करके, मुक्तस्वरूप को कैसे पाया सकेगा? आत्मा नानाविध योनियों में, नाना प्रकार के स्वरूप को धारण करती है, वह कैसे घटित होगा? क्योंकि पूर्व स्वरूप को छोड़े बिना भावी स्वरूप को कैसे पा सकता है ? नित्य का तो यह लक्षण है कि वह हमेशा एक ही स्वरूप में स्थिर रहता है / कहा भी है :"अच्युतानुत्पन्नस्थिरस्वभावो हि नित्यम्" जिस की नये परिणामरूप में उत्पत्ति और पूर्वस्वरूप का नाश नहीं होता, परन्तु सदा एक ही स्वभाव में स्थिर रहता है, वह नित्य है। अगर ऐसी एकान्त नित्य आत्मा हो तो संसार की व्यवस्था ऊँच,-नीच, सेठ,-नौकर, स्त्री-पुरुष आदि परिणाम, जिसे व्यवहार में सभी अनुभव करते हैं, उसकी सिद्धि कैसे होगी? इस प्रकार तुम्हारे मतानुसार व्यवहार विरुद्ध दिखाई देता है उसका क्या होगा? // 478 // तदयं कर्तृभावः स्याद्, भोक्तृभावोऽथवा भवेत् / उभयानुभयभावो वा, सर्वथाऽपि न युज्यते // 479 // अर्थ : तो इसका (नित्य आत्मा का) कर्तृभाव (शुभाशुभ कर्म कारक स्वभाव) हो या भोक्तभाव (पूर्वकृत कर्मवेदक स्वभाव) उभय कर्तृभोक्तृभाव हो या अनुमय-कर्तृभोक्तृ अभाव हो चारों में से एक भी विकल्प घटित होता नहीं // 479 // विवेचन : हे वेदान्तियों ! आत्मा को एकान्त नित्य माने तो शुभाशुभ कर्मों का कर्ता वह कैसे सिद्ध होगा? और उन कर्मों का भोक्ता भी कैसे सिद्ध होगा? कर्ता और भोक्ता अथवा अकर्तृत्व