________________ 275 योगबिंदु को दूर हटा देती है, वह मुक्त हो जाती है / आत्मा के नित्य होने पर भी सम्यक्दर्शन रूप हमारा आत्म दर्शन तुम्हारे आत्मदर्शन की भांति स्नेह-राग को पैदा नहीं करता, अपितु सर्व कर्म मलों को शुद्ध करके, परमसुख का भोक्ता बनाता है। परन्तु तुम्हारे मन में तो अनित्य आत्मा का क्षणक्षण में नाश होने से, तुम्हारे कर्मनाश का समय कब आयेगा ? अनिश्चित है // 474 / / उपप्लववशात् प्रेम, सर्वत्रैवोपजायते / निवृत्ते तु न तत् तस्मिन्, ज्ञाने ग्राह्यादिरूपवत् // 475 // अर्थ : संकल्प-विकल्प रूप उपप्लव से ही सर्वत्र स्नेह-प्रेम (आत्मभ्रांति) होता है, उसके निवृत्त होने पर नहीं, ज्ञान में ग्राह्यादिरूप की भांति // 475 // विवेचन : उपप्लव रूप-संकल्प-विकल्प से इष्ट और अनिष्ट पदार्थों के संयोग वियोग के सम्बंध से ही जीवों को स्नेह और क्लेश होता है। उसी से जीवों को बाह्य-स्त्री, धन, कुटुम्ब सम्बंधी और आभ्यन्तर शातावेदनीयरूप सौभाग्य, यशोवाद आदि वस्तुओं को प्राप्त करने के लिये प्रेम और प्रतिकूल को त्याग करने के लिये द्वेष, इष्ट की प्रीति और अनिष्ट का द्वेष पैदा होता है / इस प्रकार जब तक जीव कर्म के वशवर्ती रहता है, मोह माया में फंसा रहता है, राग-द्वेषरूप प्रेम ईर्ष्या चलती रहती है, और वह कर्मोदय से सुख दुःख भोगता है / परन्तु जिनकी आत्मा में ऐसा उपप्लवरूप संकल्प विकल्प नष्ट हो गया है, उसे कहीं भी किसी भी, पदार्थ में राग या द्वेष नहीं होता // 475 // स्थिरत्वमित्थं न प्रेम्णो, यतो मुख्यस्य युज्यते / ततो वैराग्यसंसिद्धेर्मुक्तिरस्य नियोगतः // 476 // अर्थ : इस प्रकार संसार प्रेम स्थिर न होने से वैराग्य की सिद्धि है और वैराग्य से आत्मा की मुक्ति निश्चित है // 476 // विवेचन : बौद्ध कहते हैं कि जैन आत्मा को स्थिर अर्थात् कथंचिद् नित्य मानते हैं, इसलिये उनको आत्मदर्शन रूप स्नेह भी होगा और उसके होने से मुक्ति का अभाव होगा / उनके इस दोष का निराकरण करने के लिये आचार्य कहते हैं कि संसार प्रेम - अर्थात् पुत्र, कलत्र, कुटुम्ब आदि का, मैं और मेरा रूप जो स्नेह है, जिसे आप आत्मदर्शन कहते हैं, वह प्रेम नष्ट होने वाला है, क्योंकि बहिरात्मविषयक प्रेम स्थिर न होने से किसी भी समय उसपर अप्रेम-अरुचि पैदा होती है। जब आत्मा को सम्यक्ज्ञान रूपी तात्त्विक सत्य दर्शन होता है वह सम्यक्ज्ञानरूप हमारा आत्मदर्शन आत्मा को संसार के भोगों में फंसाता नहीं, परन्तु संसार का यथार्थ बोध करवाता है और वैराग्य भावना को जागृत करता है, संसार के प्रति आसक्ति का अभाव पैदा करता है / फिर उस वैराग्य से कर्मनिवृत्ति और कर्मनिवृत्ति से मुक्ति निश्चित होती है / इसलिये तुम्हारी कल्पना व्यर्थ है। सरल