________________ 274 योगबिंदु स्वदर्शनरूप-स्वसंवेदनरूप ज्ञान भी आप को होगा और वस्तु स्वरूप का दर्शन - भोग की वासना होगी / इसलिये हे बौद्धों! तुम्हारा मत मान लें तो भी क्षणिक ज्ञान संसार का हेतु है // 473 // अध्रुवेक्षणतो नो चेत्, कोऽपराधो ध्रुवेक्षणे / तद्गता कालचिन्ता चेन्नासौ कर्मनिवृत्तितः // 474 // अर्थ : यदि क्षणिक ज्ञान से (स्नेह)नहीं रहता तो नित्यज्ञान में क्या दोष है ? यदि नित्यात्मगत कालचिन्तारूप दोष मानो तो (वह भी ठीक नहीं क्योंकि) वह कर्म निवृत्ति से (निवृत्त हो जायगा) व्यवस्था होगी // 474|| विवेचन : बौद्धों की ऐसी मान्यता है कि पदार्थों को, आत्मा को क्षणिक मानने से उसमें असारता - सार हीनता के दर्शन होते हैं जिसके परिणाम स्वरूप पदार्थ पर स्नेह-राग-आसक्ति नहीं रहती बौद्धों की इस मान्यता का उत्तर देते हुये आचार्य कहते हैं कि अगर क्षणिक ज्ञान से पदार्थों की क्षणभंगुरता जानकर उसमें आसक्ति नहीं होती, तो आत्मा को नित्य मानने वालों ने कौन सा अपराध किया है कि उनको संसार के असार पदार्थों में स्नेह राग रहेगा। इस पर बौद्ध कहते हैं कि अनित्य आत्मा में तो भविष्य में मेरा क्या होगा? यह चिन्ता नष्ट हो जाती है / परन्तु यदि आत्मा को नित्य माने तो कल मेरा क्या होगा? मैं सुखी रहुंगा या दुःखी ? ऐसी चिन्ता रहती है / कहा भी है : ___ "आगामिनि काले सुखप्राप्ति दुःखपरिहारौ कथं मे स्याताम्" भविष्य में मुझे सुख की प्राप्ति कैसे हो, दुःख का अन्त कैसे हो ? ऐसी चिन्ता रहने से तृष्णा बढ़ती है। परन्तु बौद्धों की यह युक्ति ठीक नहीं क्योंकि कथंचिद् नित्य आत्मा को जब सम्यक् ज्ञान से विवेकज्ञान जागृत होता है तब वह जड़ और चेतन के भेदज्ञान से : एगोहं नत्थि मे कोई, नाहमन्नस्स कस्सइ / एवं अदीणमणसो, अप्पामणुसासइ // 11 // एगो मे सासओ अप्पा, नाण सण संजुओ / सेसा मे बहिरा भावा, सव्वे संजोगलख्खणा // 12 // संथारा पोरिसी मैं अकेला आत्मस्वरूप हूं, कोई मेरा नहीं, न मैं किसी का हूं। ज्ञान, दर्शन और चारित्र से युक्त मेरी आत्मा है बाहर के सर्वसंयोग अनित्य है। इस प्रकार स्वभाव और परभाव का पूरा बोध हो जाता है / तुम जिसे आत्मदर्शन कहते हो; वह हमारे मत में बहिरात्मदर्शन है वह सम्यकदृष्टि आत्मा को नहीं रहता। उसे तो शुद्ध तात्त्विक आत्मदर्शन वह होता है, जो मुक्ति का उपादान हेतु है। उसे भविष्य की कोई भी कालगत चिन्ता नहीं रहती / अतः नित्य आत्मा भी जब कर्मावरण