________________ 273 योगबिंदु "अप्रच्युतानुत्पत्तिस्थिरैकस्वभावो नित्यः" जो नाश न हो, उत्पन्न न हो और सदा एक स्वभाव में कायम रहे ऐसा एकान्त नित्य हम नहीं मानते / एकान्तनित्य मानने से अव्याप्ति, अतिव्याप्ति, असंभव आदि दोषों का संभव है / लेकिन स्याद्वाद सिद्धान्तानुसार उत्पाद-व्यय-ध्रोव्ययुक्त मानने से "कर्मों के आवरण होते हैं तब तक आत्मा संसार में भ्रमण करता है, जब आवरण समाप्त हो जाते हैं तब आत्मा मोक्ष प्राप्त करता है" यह सब सुन्दर रीति से घटित हो जाता है, और कोई भी दोष भी नहीं आता // 472 / / न चात्मदर्शनादेव, स्नेहो यत् कर्महेतुकः / नैरात्म्येऽप्यन्यथाऽयं स्याज्ज्ञानस्यापि स्वदर्शनात् // 473 // अर्थ : आत्मदर्शन से स्नेह नहीं होता है क्योंकि वह (स्नेह) कर्म हेतुक निरात्मदर्शन भी है अन्यथा-आत्मा के क्षणिकत्वज्ञान से यदि आप आत्मदर्शन मानते हैं वह तो होने वाला ही है // 473 // विवेचन : बौद्धों ने कहा है कि निरात्मदर्शन की भावना कल्याणकारी है, उसके कारणरूप आत्मा के दर्शन की भावना से मोहरूप स्नेह की वृद्धि होती है, परन्तु यह बात न्याय युक्त नहीं है। आत्मा का दर्शन होने से स्नेह-प्रेम होता है ऐसी बात नहीं है / बौद्ध अनुयायी को आत्मदर्शन से जो प्रेम होता है वह अनात्म अर्थात् पुद्गलप्रेम हुआ, क्योंकि आत्मदर्शन स्नेह का हेतु कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता / आत्मदर्शन तो मोह, स्नेह, अज्ञान, मिथ्यात्व आदि के नाश का हेतु है, जैन ऐसा मानते हैं / स्नेह का हेतु तो बहिरात्मदर्शन-शरीर, इन्द्रियां, मन आदि को "मैं", "मेरा" पन वाला आत्मदर्शन ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अन्तराय आदि के उदयरूप मोह, ममता, स्नेह, राग, द्वेष, काम, क्रोध, मान, माया होने में हेतु है / उसी प्रकार स्नेह में भी मोहनीय कर्म हेतुभूत है / चारित्र मोहनीय कर्म का उदय स्नेह से होता है, परन्तु आत्मज्ञान दर्शन, चारित्र का पुरुषार्थ स्नेहरूप चारित्र मोह का नाश करता है / इसलिये आप निरात्मदर्शन को मुक्ति का हेतु कहते हो वह कैसे संभव हो सकता है ? क्योंकि वहाँ "मै शरीर हूँ" ऐसा विकल्प तो जरूर होगा ही। अतः शरीर, मन, इन्द्रियों को सुख मिले, दुःख न मिले ऐसी वृत्ति से अनुकूल विषय भोग में प्रवृत्ति निश्चित होगी ही / अतः भोग की इच्छा भी वहाँ अवश्य कायम रहती है। और उसके लिये जीव हिंसा, चोरी, झूठ, कपट करके भी योग्य सामग्री का संग्रह करता है और इस कारण से अवश्य कर्म का बंध होता है। वहाँ कर्म की सत्ता विद्यमान होने से स्नेह आदि की विद्यमानता दूर नहीं हो सकती। यदि कर्म को स्नेह का हेतु न मानो तो स्नेह का कारण हेतु कौन हुआ ? यदि ज्ञान को ही कारण मानो तो क्या यह उचित है ? नहीं / क्योंकि ज्ञान से आत्मदर्शन और आत्म दर्शन से मैं-पने की बुद्धि पैदा होती है, इसलिये जगत की वस्तुओं को भोगने का राग पैदा होता है, ऐसा तुम्हारा कथन क्या योग्य है ? नहीं / कारण तुम्हारा ज्ञान क्षण मात्र रहने वाला है इसलिये