________________ 272 योगबिंदु विवेचन : 'स्वनिवृतत्तति स्वभाव' और 'अन्य जन्म जनकत्व स्वभाव', इस प्रकार के दो स्वभाव एक पदार्थ में साथ रहने वाले है, अगर ऐसा आप बौद्ध लोग स्वीकारें, तो कोई विरोध नहीं आता और पूर्व पदार्थ में तथा उत्तर पदार्थ में अनुवृत्तिरूप अन्वय-सम्बंध यथार्थ घटित होता है। अर्थात् पदार्थ में पूर्व पर्याय का नाश करने का स्वभाव और उत्तर पर्याय को जन्म देने का जो स्वभाव है, उन दोनों स्वभावों को एक श्रृंखला रूप से जोड़ने का जो अन्वय रूप एक स्वभावत्व अर्थात् कथंचिद् एकरूपत्व-पदार्थ का कथंचिद् नित्यत्व स्वभाव है, उसके योग से ही होता है / उस कथंचिद् नित्यत्व स्वभावरूप एकत्व स्वभाव को मानने पर ही पदार्थ में दोनों स्वभावों की विद्यमानता और दोनों स्वभावों की विद्यमानता से ही कार्य-कारण भावरूप अन्वय-सम्बंध का योग यथार्थ तौर पर घटित हो सकता है। क्योंकि जो पदार्थ जन्य जनकत्व और स्वनिवृत्ति इन दो स्वभावों को धारण नहीं करता वह अपना पदार्थत्व सिद्ध नहीं कर सकता। जो दोनों स्वभावों को धारण करता है वह सदा अपने अनेक धर्मों-स्वभावों से अपना अस्तित्व, वस्तुत्व या द्रव्यत्वरूप सत्य स्वरूप प्रकट-सिद्ध कर सकता है / इसी प्रकार नये जन्म में जो पूर्वस्मृति (पूर्वजन्म के स्वभाव से) आती है उस स्मृति से आत्मा के अनेक जन्मों की सिद्धि होती है, और उस आत्मा का अनादि कालीन सम्बंध भी सिद्ध होता है / इस प्रकार कहने का तात्पर्य यह है कि पदार्थ को कथंचिद् नित्यत्व स्वभाववाला मानने से ही ये सब सम्बंध घटित होते हैं / आत्मा का सर्वथा अभाव मानने पर नहीं। इसलिये पदार्थ को - आत्मा को कथंचिद् नित्य याने द्रव्यरूप से नित्य मानना चाहिये // 471 // अन्वयाऽर्थस्य न आत्मा, चित्रभावो यतो मतः / न पुनर्नित्य एवेति, ततो दोषो न कश्चन // 472 // अर्थ : अन्वयार्थ अन्वय-सम्बंध के लिये ही हमने आत्मा को नाना परिणामी माना है, एकान्त नित्य नहीं माना / इसलिये कोई दोष नहीं आता // 472 // विवेचन : "उत्पाद्व्यय ध्रौव्ययुक्तं सत्" पदार्थों के अन्दर जो अन्वय-अनुवृत्तिरूप ध्रौव्य नामक अंश रहा हुआ है, उसकी सिद्धि के लिये ही हम (जैनों) ने आत्मा को नानाविध परिणामों को धारण करने वाला माना है / अनेकान्तदर्शन में "उत्पाद्व्यय ध्रौव्ययुक्तं सत्" पदार्थ में तीन स्वरूप-स्वभाव माने हैं, क्योंकि प्रत्येक पदार्थ नये-नये पर्यायों को धारण करता है जिसे हम 'उत्पाद' कहते हैं और प्रतिक्षण पूर्वपर्याय नष्ट होते रहते हैं, इसलिये उसे हम 'व्यय' कहते हैं / उत्पाद और व्यय इन दोनों के अन्दर नित्य स्थिर रहने वाला जो अविच्छिन्न पदार्थ होता है उसे हम 'ध्रौव्य' कहते हैं / इस प्रकार आत्मा को भी हम उत्पाद-व्यय और ध्रौव्ययुक्त मानते हैं / आत्मा नये-नये शरीरों को धारण करता है, वह अपने उत्पाद स्वभाव के कारण; पूर्व शरीरों को छोड़ता है, वह व्यय स्वभाव से, फिर भी आत्मा वही का वही है / सभी योनियों में नये-नये परिणामों को धारण करने वाला और छोड़ने वाला वही एक आत्मा है। हम उसे कथंचिद् नित्य मानते है परन्तु तुम्हारे जैसा एकांत नित्य नहीं जैसा कि कहा है :