________________ 268 योगबिंदु अन्तरात्मा और परमात्मा आत्मा की ये तीन अवस्थाएँ जैन मानते हैं / बौद्धों का निरात्मदर्शनअन्तरात्मा है अन्तरात्मा होने पर ही परमात्मा को पा सकते हैं // 462 // नैरात्म्यमात्मनोऽभावः, क्षणिको वाऽयमित्यदः / विचार्यमाणं नो युक्त्या, द्वयमप्युपपद्यते // 463 // अर्थ : नैरात्म्यदर्शन में आत्मा का अभाव या (आत्मा का) क्षणिकत्व (इष्ट है ?) विचार करने पर दोनों ही युक्ति से सिद्ध नहीं होते // 463|| विवेचन : बौद्धों को कहते हैं कि तुम्हारे नैरात्म्यदर्शन में शशक के सींग, आकाश के कुसुम और वंध्या के पुत्र के समान आत्मा का अत्यन्त अभाव इष्ट है, या आत्मा का क्षणिकत्व इष्ट है / अर्थात् एक क्षण में जीवन धारण करके दूसरे ही क्षण में नाश पाने वाला मानना इष्ट है? इस तरह दो कोटि संभव है, परन्तु विचार करने पर दोनों ही मुक्ति के लिये अनुपयुक्त सिद्ध होती है // 463 // सर्वथैवात्मनोऽभावे, सर्वा चिन्ता निरर्थका / सति धर्मिणि धर्मा यच्चिन्त्यन्ते नीतिमद्वचः // 464 // अर्थ : आत्मा का सर्वथा अभाव हो तो सब चिन्ता व्यर्थ है क्योंकि नीतिकारों का वचन है कि धर्मी होने पर ही धर्म की चिन्ता की जाती है // 464 / / विवेचन : अगर तुम द्रव्य और भाव से आत्मा का सर्वथा अभाव मानते हो, तो स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त करने के लिये सर्व परिश्रम व्यर्थ है / तप, जप, ध्यान, समाधि आदि धार्मिक अनुष्ठानों की क्या जरुरत है ? नीतिकारों ने कहा है कि धर्मी होने पर ही धर्म की चिन्ता की जाती है। लड़का हो तो वह विद्वान है या मूर्ख, धार्मिक है या अधार्मिक, रूपवान अथवा कुरूप ऐसा कह सकते हैं / परन्तु वंध्या के पुत्र ही नहीं, तो वह अच्छा है या बुरा, सुन्दर है या कुरूप, ऐसे कैसे सम्बोधित कर सकते हैं / इसी प्रकार हम तो आत्मा की भाव-सत्ता मानते हैं, इसलिये ज्ञान, दर्शन, चारित्र उसके गुण है, धर्म है, ऐसा कहते हैं लेकिन आप के मत में आत्मा का ही अभाव है तो उसके लिये स्वर्ग और मोक्ष की कल्पना ही व्यर्थ है, उसके लिये परिश्रम करना ही व्यर्थ है // 464 // नैरात्म्यदर्शनं कस्य, को वाऽस्य प्रतिपादकः / एकान्ततुच्छतायां हि, प्रतिपाद्यस्तथेह कः // 465 // अर्थ : क्योंकि एकान्ततुच्छ अर्थात् आत्मा का सर्वथा अभाव मानने पर नैरात्म्यदर्शन किस को हुआ? इसका प्रतिपादक कौन हुआ और यहाँ प्रतिपाद्य विषय भी क्या हुआ ? बताइए // 465 / /