________________ योगबिंदु 267 अर्थ : 'अहं' प्रत्यय के ज्ञान का अभाव होने से ही किसी को विषयों में स्नेह नहीं होता और आत्मप्रेम के बिना कोई भी सुख कामना से दौड़ता नहीं भागता नहीं // 461 // विवेचन : जब कोई बुद्धिमान साधक 'अहं' प्रत्यय को नहीं देखता अर्थात् जब उसके लिये 'मैं और मेरा' का भाव अदृश्य हो जाता है, तब अहंकार संपूर्ण विलीन हो जाता है / 'मैं और मेरे' की मूर्छा टूट जाती है उस मनुष्य को किसी भी स्थान या विषय पर आसक्ति नहीं रहती। प्रेम-मूर्छा, ममता और आसक्ति समाप्त हो जाने से वह सुख के लिये इधर-उधर हाथ-पैर नहीं मारता। उसकी दौड़-धूप-भटकन, संघर्ष आदि सब आत्मा के लिये मैं और मेरे को कायम रखने के लिये ही होती है। जब भटकन का मूल कारण अहम्-भाव ही समाप्त हो जाता है तब आत्मा निर्विकल्प समाधि में स्थिर हो जाती है, और सर्व क्लेशों से मुक्त होकर, अजर अमर पद प्राप्त करती है। सार यह है कि जब निरात्मदर्शन होता है अर्थात् 'मैं और मेरे' की मूर्छा समाप्त हो जाती है; 'मैं और मेरा' भाव नहीं रहता, तो उस मनुष्य को किसी भी स्थान पर या किसी भी विषय में स्नेह नहीं रहता; अर्थात् ममत्वभाव और आसक्ति समाप्त हो जाती है / प्रेम-स्नेह ममत्व-आसक्ति न रहने से वह सुख के लिये हाथ-पैर नही मारता / सुख की इच्छा से इधर-उधर नहीं भटकता। शून्य-निर्विकल्प समाधि रूप परम समाधि में लीन हो जाता है। और इस प्रकार वह मुक्त हो जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य जब तक मोह की शृंखला नहीं तोड़ता तब तक वह मुक्त नहीं हो सकता / मोह की श्रृंखला जबरदस्त है, उसे ही यहाँ आत्मदर्शन कहा है। 'मैं और मेरा' उसका मुख्य स्वर है // 461 // सत्यात्मनि स्थिरे प्रेम्णि, न वैराग्यस्य सम्भवः / न च रागवतो मुक्तिर्दातव्योऽस्या जलाञ्जलिः // 462 // अर्थ : आत्मा में प्रेम स्थिर होने पर वैराग्य संभव नहीं और रागी को मुक्ति नहीं इसलिये (आत्मदर्शी को) मुक्ति के लिये जलाञ्जलि दे देनी चाहिये // 462 // विवेचन : जब तक आत्मा में प्रेम स्थिर है अर्थात् 'मैं और मेरा' भाव कायम-मजबूत है, तब तक वैराग्य कैसे संभव हो सकता है ? जब तक जीव 'मैं और मेरे' में आसक्त है, फंसा हुआ है, तब तक वह संसार के प्रति रागवाला है, याने रुचिवाला है। संसार उसे प्रिय है, ऐसा संसाररागी आत्मा मुक्ति कैसे पा सकती है ? अत: ऐसे आत्मदर्शियों को मुक्ति के लिये जलाञ्जलि दे देनी चाहिये / मुक्ति की आशा ही छोड़ देनी चाहिये / आत्मदर्शन का त्याग किये बिना मुक्ति संभव नहीं / जिसे जैन "बहिरात्मा" कहते हैं बौद्ध उसी को "आत्मदर्शन" कहते हैं / बहिरात्मा,