________________ योगबिंदु 265 का निषेध है, जो कि योग्य है / क्योंकि वहाँ इन्द्रिय और मन का अभाव होता है। परन्तु शुद्ध चैतन्यशक्ति के प्रकाश का इससे निषेध नहीं होता // 456 // आत्मदर्शनतश्च स्यान्मुक्तिर्यत् तन्त्रनीतितः / तदस्य ज्ञानसद्भावस्तन्त्रयुक्त्यैव साधितः // 457 // अर्थ : सांख्यसिद्धान्तानुसार आत्मदर्शन से जो मुक्ति कही है, आत्मा के उस ज्ञान का सद्भाव सांख्ययुक्ति से ही सिद्ध हो गया // 457 // विवेचन : सांख्यशास्त्र में कहा है ‘आत्मदर्शन तःस्यान् मुक्ति' यह वाक्य सिद्ध करता है कि जब आत्मज्ञान होता है तब मुक्ति होती है, तो आत्मा की ज्ञानशक्ति जिसका तुम विरोध करते थे, तुम्हारी ही युक्ति से सिद्ध हो गई / तुम्हारे ही शास्त्रवचनों ने अपने आप आत्मज्ञान से मुक्ति की घोषणा करके, हमारे सिद्धान्त को पुष्ट किया है। अतः मुक्तावस्था में निरावरण होकर आत्मा अनंतदर्शन, अनंतज्ञान और अनंतवीर्य को धारण करता है। जिसको तुम पूर्ण विकसित चैतन्य कहते हो, उसीको हम पूर्णविकसित ज्ञान करते हैं // 457|| सांख्यदर्शन के सिद्धान्तों को युक्ति पुरस्सर बताकर अब बौद्ध सिद्धान्तों को कहते हैं : नैरात्म्यदर्शनादन्ये, निबन्धननियोगतः / दोषप्रहाणमिच्छन्ति, सर्वथा न्याययोगिनः // 458 // अर्थ : न्याय को सबसे प्रधान मानने वाले अन्य बौद्ध विचारक नैरात्म्यदर्शन से बंधनों के वियोग से दोष की हानि चाहते हैं / अर्थात् सर्वथा न्यायप्रिय अन्य बौद्धयोगी नैरात्म्यदर्शन से बंधनों के वियोग से दोष की हानि चाहते हैं // 458 // विवेचन : सांख्यों की भांति मात्र शास्त्रों की ही शरण न मानकर, न्याय, तर्क, प्रमाणों आदि की युक्ति के उपासक न्यायप्रिय बौद्ध विद्वान नैरात्म्य दर्शन-आत्म-अभाव से कर्मबंधनों का वियोग और बंधनवियोग से दोष की हानि चाहते है। अर्थात् उनकी मान्यता यह है कि मनुष्य कर्मों का बंधन आत्मा के लिये - अपने लिये बांधता है; अनेकों दोष, दुष्कर्म वह अपने लिये कर बैठता है; "मैं और मेरे का जो भाव है' वही कर्म-दोष या बंधन का मूल कारण है। इसलिये जब वह 'मैं मेरा का भाव' नहीं देखता अर्थात् अहम्-भाव जब अदृश्य हो जाता है तब उसके बंधन नष्ट हो जाते हैं और फिर सभी दोषों की भी हानि हो जाती है // 458 // समाधिराज एतत् तत् तदेतत् तत्त्वदर्शनम् / आग्रहच्छेदकार्येतत् तदेतदमृतं परम् // 459 //