________________ 264 योगबिंदु स्वभाव, परिणामी-स्वभाव, अनेक-स्वभाव वाला मानना ही उचित है / क्योंकि आत्मा को परिणामी-स्वभाव - नये-नये परिणामों को धारण करने वाला माने बिना प्रकृति, माया और आवरणों से वियोग संभव नहीं / तात्यर्य यह है कि, हे सांख्य पण्डितों ! तुम आत्मा को निरावरण तभी कह सकते हो जब जगत को आश्रय करके, आत्मा विविधता रूप विकार को न पाये / लेकिन संसार में विविधता के दर्शन प्रत्यक्ष सभी को अनुभूत होते हैं / यदि निरावरण आत्मा भी जगत को आश्रय करके, विविधता रूप विकार को प्राप्त करती है तो आत्मा की वह निरावरणता कैसे हो सकती है? तुम सांख्य लोग आत्मा को एक ही स्वभाव में स्थिर रहने वाली कूटस्थ नित्य मानते हो, वह न्याय पुरस्सर नहीं // 454 // दिदृक्षा विनिवृत्ताऽपि, नेच्छामात्रनिवर्तनात् / पुरुषस्यापि युक्तेयं, स च चिद्रूप एव वः // 455 // अर्थ : दिक्षा की निवृत्ति भी इच्छामात्र की निवृत्ति से पुरुष को घटती है, तुम्हारा (तुम्हारे द्वारा प्रणीत) पुरुष तो चिद्रूप ही है // 455 // विवेचन : जगत के पदार्थों को देखने की इच्छा - दिक्षा मुक्तावस्था में नहीं रहती, यदि इस कारण से वहाँ ज्ञान का अभाव मानते हो तो वह उचित नहीं / क्योंकि इच्छा न होने पर भी ज्ञानशक्ति पुरुष में न्याय से सिद्ध होती है, क्योंकि तुम्हारे मत में भी पुरुष चिद्प है, उस चिद्शक्ति को ही हम ज्ञानशक्ति कहते हैं // 455 / / चैतन्यं चेह संशद्धं, स्थितं सर्वस्य वेदकम् / तन्ने ज्ञाननिषेधस्तु, प्राकृतापेक्षया भवेत् // 456 // __ अर्थ : यहाँ (मुक्तावस्था में) आवरण रहित-संशुद्ध होकर, चैतन्य सर्वज्ञेय पदार्थों को जानता है / तन्त्र सांख्यशास्त्र में ज्ञान का निषेध प्राकृत-इन्द्रियज्ञान की अपेक्षा से किया है // 456 // विवेचन : मुक्तावस्था में सभी आवरणों का नाश होने पर आत्मा का सहजस्वभाव परम शुद्ध चैतन्य स्वरूप प्रकट होता है / वह आत्मा की उस केवलज्ञान रूप चैतन्यशक्ति से जगत के भूत, भावी, वर्तमान कालीन सर्व द्रव्य, गुण, पर्यायमय पदार्थों को जानता है, देखता है / सांख्य दर्शनकारों ने मुक्तावस्था में ज्ञान का जो निषेध किया है; वह इन्द्रियज्ञान की अपेक्षा से किया है। वह निषेध इन्द्रियजन्य ज्ञान का निषेध है जो योग्य है क्योंकि मुक्तावस्था में इन्द्रिय और मन का अभाव होता है इसलिये उससे होने वाले ज्ञान का भी अभाव है, परन्तु शुद्ध चैतन्य का प्रकट प्रकाश का अभाव नहीं होता / ग्रंथकर्ता का आशय यह है कि मुक्तावस्था में सांख्यदर्शनकारों ने जो ज्ञान का निषेध किया है वह छद्मस्थ अवस्था में मन और इन्द्रियों के सहयोग से होने वाले संकल्प-विकल्पात्मक ज्ञान