________________ योगबिंदु 263 में "मुलावस्था यामर्थविज्ञानं न" ऐसा जो मानते हो वह गलत है क्योंकि मुक्तावस्था में सर्व आवरणों का अभाव होने से सारे जगत के जड़-चेतन सभी द्रव्यों के गुण-पर्याय रूप अर्थ याने पदार्थों का विज्ञान उसे सहजभाव से ही होता है / आवरणों के नष्ट हो जाने से आत्मा की दर्शन-ज्ञानरूप चैतन्यशक्ति निरावरण भाव से पूर्ण प्रकट होती है, और वही ज्ञान होने में उपादान मुख्य कारण है। सांख्य अगर ऐसा कहें कि ज्ञान होने में अन्त:करण-मन को हम निमित्त कारण मानते हैं और मुक्तावस्था में उसका अभाव होने से हम ज्ञान का वहाँ अभाव मानते है, तो यह भी गलत है। क्योंकि ज्ञान होने में अन्तःकरण उपादान - मुख्य कारण नहीं, मुख्य कारण तो आत्मा की निरावरणशक्ति है / मुक्तावस्था में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय आदि सर्व कर्मावरण रूप दोष नष्ट हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में अन्तःकरण के अभाव में भी पूर्ण ज्ञान प्रकट होता है / क्षीणदोष - सिद्ध पुरुषों को अन्तः करण के अभाव में भी ज्ञान प्रकाशमान होता है // 453|| निरावरणमेतद् यद्, विश्वमाश्रित्य विक्रियाम् / न याति यदि तत्त्वेन, न निरावरणं भवेत् // 454 // अर्थ : निरावरण वह है जो विश्व को आश्रय करके विकार को नहीं पाता; (यदि विकार को पाता है तो) वह वस्तुतः निरावरण ही नहीं हो सकता / अर्थात् यदि यह - चैतन्य-आत्मा निरावरण है तो जगत को आश्रय करके विक्रिया को कैसे पा सकता है ? यदि निरावरण आत्मा विक्रिया को पाये तो निरावरण कैसे हो सकता है ? // 454 // विवेचन : सांख्य विद्वानों का मानना है कि पुरुष (आत्मा का चैतन्य स्वरूप) को दोषों का आवरण कभी नहीं लगता, वह सदा एक ही स्वभाव में - स्वरूप में स्थिर रहता है। उनके इस तथ्य पर जैन कहते हैं कि अगर पुरुष-आत्मा एक ही स्वरूप में स्थिर है, तो जगत में तो पुरुष आत्मा की विचित्रता प्रत्यक्ष दिखाई देती है, कोई सुखी, कोई दुःखी; कोई निर्धन, कोई धनवान; कोई रोगी, कोई निरोगी दिखाई देता है। यह विचित्रता कैसे घटित होना? इस पर सांख्यों का उत्तर है कि पुरुष-आत्मा में जो विविधता के दर्शन होते हैं उसका कारण जगत हैं जो प्रकृति के विकाररूप से विविधरूपों को धारण करता है। आत्मा के प्रतिबिम्ब से उसमें विविधता के दर्शन औपचारिक है, वास्तविक नहीं, जगत की अपेक्षा से है। इस पर जैन कहते हैं, हे सांख्य पण्डितों ! यदि तुम्हारे सिद्धान्तानुसार आत्मा तात्त्विकरूप से अविचलित स्वभाववाला है, तो पूर्व के स्वरूप का त्याग करके, नये स्वरूप को पाने का जो पर्यायरूप स्वभाव है उसका अभाव सिद्ध होता है / अतः पूर्वकाल में आत्मा के साथ जैसा प्रकृति का संयोग है, उत्तरकाल में भी वैसा ही कायम रहेगा, और कभी भी उसके वियोग की संभावना नहीं होगी? किसी भी काल में आत्मा प्रकृति से मुक्त होकर निरावरण नहीं हो सकता, कभी भी मुक्त नहीं हो सकता / इसलिये स्याद्वाद मतानुसार आत्मा को भव्यत्व