________________ योगबिंदु 261 जड़ है-अचेतन है, फिर भी पुरुष आत्मा के सान्निध्य से, उसके सम्पर्क में रहकर, अपने आप को 'मैं आत्मा हूँ", "मैं चेतन हूँ" इस प्रकार के चैतन्य परिणामों को धारण करती है। क्योंकि आत्मा का प्रतिबिम्ब पड़ने से वह अपने आप को चेतनवंती बताती है और बाह्य शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि विषयों का संयोग-सम्बंध से भोग करती हुई "मैं आत्मा हूँ", "उन सभी विषयों की ग्राहक हूं" ऐसा अभिमान रखती है। इस प्रकार आत्मा स्वयं स्फटिकवत् निर्मल होते हुये भी प्रकृति के विकार से जड़ इन्द्रियों और मन के एकत्व भाव को प्राप्त होती है, सांख्य ऐसा मानते हैं // 449 // विभक्तेहपरिणतौ, बुद्धौ भोगोऽस्य कथ्यते / प्रतिबिम्बोदयः स्वच्छ, यथा चन्द्रमसोऽम्भसि // 450 // अर्थ : जैसे स्वच्छ जल में चन्द्र का प्रतिबिम्ब पड़ता है, वैसे बुद्धि में पड़े हुये इसके (पुरुष के) प्रतिबिम्ब को बुद्धि का विषय कहते हैं // 50 // विवेचन : जैसे स्वच्छ निर्मल जल से पूर्ण कुण्ड में, चन्द्र का प्रतिबिम्ब चन्द्र की भ्रांति को पैदा करता है और पवन की हिलोरों से उठी तंरगों से स्थिर चन्द्र भी चंचलता को धारण करता हुआ दिखाई देता है। वैसे ही बुद्धि में आत्मा का प्रतिबिम्ब आत्मा चेतना की भ्रांति को पैदा करता है और तब बुद्धि ही स्वयं बाह्य रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि विषयों का भोग करती हुई दिखाई देती है। जब बुद्धि ऐसी परिणति में होती है तब बुद्धि अचेतन होने पर भी चेतन, और प्रतिबिम्बित आत्मा अप्रधान होने पर भी प्रधान-प्रकृतिरूप को प्राप्त करती है। ऐसा सांख्यों का मन्तव्य है // 450 // स्फटिकस्य तथानामभावे तदुपधेस्तथा / विकारो नान्यथाऽसौ स्यादन्धाश्मन इव स्फुटम् // 451 // ___ अर्थ : स्फटिक तथा उसकी उपाधि के स्वभाव से विकार होता है, अन्यथा अन्धपाषाण सामान्य पत्थर की भांति स्पष्टतः वह (विकार) न हो // 451 // विवेचन : स्फटिक, सूर्यकान्तमणि, चन्द्रकान्तमणि आदि पाषाणों में अन्य वस्तु के प्रतिबिम्ब को ग्रहण करने का स्वाभाविक विकार रहा हुआ है। इसीलिये जिन पदार्थों का उसके साथ सम्बंध होता है, वैसे भाव को उपाधिरूप से धारण करता है / इन पाषाणों के नीचे जैसे रंग का फूल या कोई भी वस्तु रखते हैं, वैसे ही प्रतिबिम्ब को धारण कर लेते हैं, क्योंकि वैसा विकार पाने का स्वभाव उनमें सहजभाव से रहा हुआ है / परन्तु इसके विपरीत जिसमें ऐसे प्रतिबिम्ब को ग्रहण करने का स्वभाव नहीं हैं वैसे अन्धपाषाण - सामान्य पत्थर प्रतिबिम्ब को ग्रहण नहीं करता, क्योंकि उसमें वैसा स्वभाव नहीं, अन्यथा सामान्य पत्थर में भी प्रतिबिम्ब ग्रहण होना चाहिये, लेकिन नहीं होता है / यह बात बिल्कुल स्पष्ट है / इसी प्रकार यदि आत्मा स्वभाव से सर्वथा अधिकारी