________________ 260 योगबिंदु बुद्धयध्यवसितस्यैवं, कथमर्थस्य चेतनम् / गीयते तत्र नन्वेतत्, स्वयमेव निभाल्यताम् // 448 // अर्थ : इस प्रकार (चैतन्य और विज्ञान को भिन्न मानने पर) बुद्धि द्वारा अध्यवसित-निश्चित करवाये हुये पदार्थों का ज्ञान चेतन का कैसे कहते हो ? स्वयं ही विचार करो // 448 // विवेचन : हे सांख्य पण्डितों ! तुम स्वयं ही अपने प्रज्ञाचक्षु खोल कर देखो ! विचारो!! कि जब तुम चैतन्य और ज्ञान को अलग-अलग मानते हो तो तुम्हारे शास्त्रों में जो लिखा है कि 'बुद्धयध्यवसितमर्थं पुरुषश्चेतयते' "बुद्धि द्वारा अध्यवसित-निश्चित किये गये पदार्थों को पुरुष जानता है" और 'चेतनमात्मानो विज्ञानम्' "चेतन आत्मा का विज्ञान है", वह कैसे घटित होगा। क्योंकि यह वचन तो चैतन्य को विज्ञानरूप से अंगीकार करते हैं। यदि चैतन्य और विज्ञान में भेद है तो अज्ञानी पुरुष आत्मा अज्ञानी होने से पदार्थों को कैसे जान सकेगा? "चीति संज्ञाने" यह वचन भी चैतन्य और विज्ञान की एकता को सिद्ध करता है / अतः तुम्हारी बात 'चैतन्य और ज्ञान की भिन्नता' तुम्हारे ही शास्त्रवचनों से खण्डित हो जाती है। इसलिये चेतन और विज्ञान एक ही वस्तु है भिन्न-भिन्न नहीं (अगर ऐसा नहीं मानते तो बुद्धि द्वारा अध्यसित अर्थ को पुरुष जानता है, यह कैसे घटित होगा) // 448 // पुरुषोऽविकृतात्मैव, स्वनि समचेतनम् / मनः करोति सान्निध्यादुपाधि स्फटिकं यथा // 449 // अर्थ : पुरुष अविकृत आत्मा है, वह अपना आकार अचेतन मनः बुद्धि के सान्निध्य से स्फटिक में उपाधि की भांति प्रकट करता है // 449 // / विवेचन : सांख्यवादी आत्मा को स्फटिक की भांति निर्विकार मानते हैं और कूटस्थ नित्य मानते हैं, जैसे कहा भी है :- ‘स्वस्वरूपात् किञ्चिदप्रवच्यमानो नित्य एव सन्नित्यर्थः / ' आत्मा अपने स्वरूप से जरा भी च्युत नहीं होती, नित्य एक ही स्वरूप में अवस्थित रहती है। "अच्युतानुत्पन्नस्थिरस्वरूपो हि नित्यः" जो नाश नहीं होता, उत्पन्न नहीं होता, नित्य एक ही स्वरूप में रहता है वह नित्य कहा जाता है। सांख्यवादी नित्य की ऐसी व्याख्या करते हैं। उनका मानना है कि जैसे स्फटिक पाषाण का अपना कोई रंग, आकार नहीं होता परन्तु उस पाषाण के नीचे जैसा भी लाल, पीला, नीला फूल या कोई पदार्थ रख देने से ऐसा ही मालुम होने लगता है जैसे कि स्फटिक स्वयं ही लाल, पीला या नीले रंग का है। उसी प्रकार पुरुष आत्मा स्फटिक की भांति स्वयं निर्मल है, निर्विकार है, बुद्धि, मन, महत्तत्वरूप प्रकृति से सर्वथा भिन्न पुष्करपुष्प की भांति निर्लेप है। परन्तु बुद्धि-मन जो कि