________________ योगबिंदु 259 सम्बंध से रहे हुये है और स्वर्ण स्वरूप की भांति भिन्न है / अत: उन आवरक निमित्तों के दूर होने पर शुद्ध स्वर्ण की भांति आत्मा का संविद् ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप स्वभाव पूर्णरूप से प्रकट होता है, क्योंकि यही चिन्मय आत्मा का सहज स्वभाव और स्वरूप है। जैसे मृतिका के दूर होने पर स्वर्ण देदीप्यमान होता है, उसी प्रकार आवरणों के दूर होने पर आत्मा अपने ज्ञान स्वभाव से प्रकाशमान होता है // 446 // चैतन्यमेव विज्ञानमिति नास्माकमागमः / किं तु तन्महतो धर्मः, प्राकृतश्च महानपि // 447 // अर्थ : चैतन्य ही विज्ञान है ऐसा हमारा (सांख्यों का) सिद्धान्त नहीं, किन्तु वह (विज्ञान) तो महत्तत्व का धर्म है और महत्तत्व भी प्रकृति का विकार है // 447|| विवेचन : सांख्यवादी कहते हैं कि आपने (जैनों ने) चैतन्य और ज्ञान को एकरूप मान कर हमारे तर्कों का परिहार किया है। आप लोग ऐसा मानते हैं कि चैतन्य जो ज्ञान, दर्शन, संवेदन आदि नामों से पहचाना जाता है वह आत्मा का धर्म है / परन्तु हम उसे (चैतन्य और ज्ञान को) एक नहीं मानते क्योंकि चैतन्य जो है वह तो केवल दृष्टा रूप पुरुष है और विज्ञान पदार्थों का अनुभवरूप बुद्धि है, वह महत्तत्व का धर्म है और महत्तत्व जो है वह प्रकृति का ही विकार है / पुरुष चिन्मय है और ज्ञान प्रकृति का विकार है। दोनों भिन्न-भिन्न है / जब प्रकृति पुरुष से अलग पड़ जाती है, अर्थात् जब पुरुष प्रकृति से मुक्त हो जाता है तब उस अवस्था में ज्ञान विज्ञान भी नहीं रहता। अर्थात् जैन लोग ऐसा मानते हैं कि चैतन्य-ज्ञान, दर्शन, संवेदन आदि नामों से जो पहचाना जाता है वह ज्ञान, विज्ञान, संविद् अथवा संवेदन को चैतन्य स्वरूप नहीं मानते अर्थात् पुरुषरूप आत्मा का स्वभाव-या धर्म नहीं मानते / परन्तु वह संवेदन रूप विज्ञान महत्तत्व रूप बुद्धितत्त्व का धर्म है, ऐसा मानते हैं / जैसे प्रकृति के विकार से महत्तत्व और महत्तत्व से बुद्धितत्त्व, बुद्धितत्त्व से विज्ञानरूप अर्थबोधक ज्ञान होता है, ऐसा हमारा मानना है कहा भी है : "प्रकृतेर्महांस्ततोऽहंकारस्तस्माद् गुणश्च षोडशकः / तस्मादपि षोडशकात् पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि // इत्यादि इति" इस प्रकार चैतन्य अलग है, ज्ञान अलग है / चैतन्य पुरुष-आत्मा का धर्म है और ज्ञान विज्ञान तो महत्तत्व का धर्म है, और महत्तत्व प्रकृति का विकार है / इस प्रकार ज्ञान प्रकृति का धर्म हुआ, आत्मा का नहीं / इसलिये आत्मा-पुरुष जब प्रकृति से मुक्त होता है तब ज्ञान विज्ञानरूप धर्म उसमें नहीं, रहता ऐसा हमारा मानना है / चैतन्य पुरुष का धर्म है और ज्ञान प्रकृति का धर्म है, इसलिये दोनों भिन्न-भिन्न है, एक वस्तु नहीं है // 447||