________________ 258 योगबिंदु चैतन्यं च निजं रूपं, पुरुषस्योदितं यतः / अत आवरणाभावे नैतत् स्वफलकृत् कुतः // 445 // अर्थ : क्योंकि पुरुष का निज स्वरूप चैतन्यमय कहा है, इसलिये आवरण के अभाव में उसका फल कृतकृत्यरूप (सर्वज्ञत्व) क्यों नहीं हो सकता ? // 445 // विवेचन : चैतन्य अर्थात् ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य आदि गुण, जो आत्मा के साथ तादात्म्य सम्बंध से रहे हुये हैं / जैसा कि कहा है "चैतन्य निज रूपं पुरुषस्य उदितं" ऐसा सांख्यवादी भी पुरुष-आत्मा को चैतन्य स्वरूप मानते हैं / जब सांख्यों ने पुरुष के चैतन्यमय स्वरूप को स्वीकार कर लिया तो कर्मावरणों के अभाव में अथवा सांख्यमतानुसार प्रकृति के विरह में पुरुष अपने चैतन्यस्वरूप सच्चिदानन्दरूप फल को अनुभूत क्यों नहीं कर सकता? आत्मा का स्वरूप ही ज्ञानमय है / जब आवरण दूर हो जाते हैं, आत्मा अपने सर्वज्ञत्व का अनुभव करता है / सांख्यमतानुसार भी पुरुष जब प्रकृति से रहित हो जाता है, तब मुक्तावस्था में उसका चैतन्यस्वरूप पूर्ण प्रकट होता है // 445 // जैन दार्शनिक सांख्यमतवादियों को सम्बोधित करके समझा रहे है : न निमित्तवियोगेन, तद्धयावरणसङ्गतम् / न च तत्तत्स्वभावत्वात्, संवेदनमिदं यतः // 446 // अर्थ : निमित्त (कारणों) के वियोग से, उसके आवरणों का सम्बंध आत्मा के साथ नहीं रहता। क्योंकि वह आवरण आत्मा (पुरुष) का स्वभाव नहीं, परन्तु आत्मा से भिन्न रहा हुआ संयोग सम्बंध है / और संविद् (ज्ञान) ही आत्मा का सहज अपना स्वभाव है // 446 // विवेचन : सांख्यों की मान्यता है कि अर्थ विषयक ज्ञान मुक्ति में नहीं होता क्योंकि वे ज्ञान को प्रकृति का धर्म मानते हैं / परन्तु उनकी बात युक्ति पुरस्सर नहीं है / क्योंकि निमित्त कारण को अन्तः करण के विकारभूत राग, द्वेष, मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, अशुभविचार रूप दोषयुक्त कारणों का वियोग याने समूलनाश होने पर परिणाम स्वरूप ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय आदि आत्मा के स्वरूप को ढंक देने वाले आवरणों का अनादि कालीन संयोग सम्बंध भी नष्ट हो जाता हैं / क्योंकि वे आवरण आत्मा की छद्मस्थ अवस्था पर्यन्त ही रहते हैं / अथवा सांख्यों के मत से प्रकृति, वेदान्तमत से माया का सम्बंध, जब तक हो तब तक, आवरणों का सम्बंध रहता है और वह माया, प्रकृति, आवरण अथवा मन की मलिनता आदि कभी भी आत्मा का सहज स्वभाव नहीं हो सकता / न उनका आत्मा के साथ तादात्म्य सम्बंध है और न ही आत्मा के साथ अभेदभाव से रहे हुये हैं / परन्तु वे अनादिकाल से खान में रहे हुये स्वर्ण की मिट्टी की भांति संयोग