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________________ योगबिंदु 257 जैसे वह तुम को इष्ट नहीं, इसी प्रकार दूरदर्शीत्व भी हम को इष्ट नहीं / इसलिये जिससे पुण्य धर्म की वृद्धि हो ऐसी क्रिया को जानने वाला, वेद का ज्ञाता ही सर्वज्ञरूप से हमको इष्ट है // 442 // एवमाधुक्तसन्नीत्या, हेयाद्यपि च तत्त्वतः / तत्त्वस्यासर्वदर्शी न वेत्त्यावरणभावतः // 443 // अर्थ : इस प्रकार (जैमिनि और कुमारिल भट्ट) का उक्त कथन सर्वसत्यन्याय से विचार करने पर अग्राह्य है क्योंकि जो आत्मा हेय-उपादेय आदि का सच्चा ज्ञान रखती है वही सर्वज्ञ कही जा सकती है, असर्वदर्शी (आत्मा) तो ज्ञान के आवरण के कारण नहीं जान सकती // 443|| विवेचन : इस प्रकार महामतिशाली मीमांसक आचार्य जैमिनि और श्री कुमारिल भट्ट ने जो कहा है कि 'इष्ट तत्त्व को जानने वाला सर्वज्ञ है, दूरदर्शी सर्वज्ञ की हमको जरुरत नहीं / ' उनका यह वचन पारमार्थिक न्याय से विचार करने पर सारहीन और असत्य लगता है / हमने पूर्व में कहा है कि "ज्ञो ज्ञेये कथमज्ञः स्यात्" ज्ञाता ज्ञेय पदार्थों से अज्ञानी-अज्ञात कैसे रह सकता है ? इत्यादि श्लोक 432 में कथित सत्य वचनों के अनुसार विचार करने पर हेयोपादेय याने त्याग करने योग्य और ग्रहण करने योग्य पदार्थों के पारमार्थिकज्ञान का अनुभव जिसे हो, वह परमार्थी-वस्तुतः ज्ञानी कहला सकता है। दोषाचार से रहित, शुद्ध आचार की प्रवृत्तिवाला, जीव-अजीव, पुण्य-पाप आदि ज्ञेय-हेय-उपादेय तत्त्व का जिसको यथार्थ ज्ञान हो और वास्तव में विचार करने पर ऐसा ज्ञाता आत्मा अतत्त्वदर्शी नहीं, परन्तु तत्त्वदर्शी ही है / ज्ञान के आवरणों के कारण ही आत्मा असर्वदर्शी रहता है परन्तु जितने अंश में आवरण उठते जाते हैं, उतने अंश में ज्ञानी होता जाता है। संपूर्ण आवरणों के क्षय से संपूर्ण ज्ञान प्रकट होता है // 443 / / प्रमाण हेतुवाद पूर्वक मीमांसक मत का निराकरण करके ग्रंथकार सांख्यमत का भी निरसन कर रहे है: बुद्ध्यध्यवसितं यस्मादर्थं चेतयते पुमान् / इतीष्टं चेतना चेह, संवित् सिद्धा जगतत्रये // 444 // अर्थ : बुद्धि में प्रतिबिम्बित अर्थ को पुरुष जानता है, ऐसा स्वीकार करने पर यहाँ चेतना इष्ट हुई और तीनों जगत में संविद्-ज्ञान भी सिद्ध हुआ // 444 // विवेचन : सांख्यवादी मानते हैं कि बुद्धि में प्रतिबिम्बित अर्थ का पुरुष को ज्ञान होता है। उनकी इस स्वीकृति से स्वतः ही चेतना, ज्ञान या संविद् का स्वीकार हो गया, क्योंकि सांख्य लोग पुरुष को चैतन्य स्वरूप मानते हैं / चैतन्य वही ज्ञान है / जब आवरण नष्ट हो जाते है तो तीनों जगत का ज्ञान हो जाता है / अतः सर्वज्ञत्व न्याय सिद्ध है ऐसा मानना चाहिये // 444 //
SR No.032246
Book TitlePrachin Stavanavli 23 Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHasmukhbhai Chudgar
PublisherHasmukhbhai Chudgar
Publication Year
Total Pages108
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
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