________________ 255 योगबिंदु अर्थ : अज्ञानीकृत उपदेश में व्यभिचार आदि दोषों से शंकित (पुरुष) वेदोक्त वचनों के विश्वास के लिये किसी ज्ञानवान को तो ढूंढते ही हैं // 439 // / विवेचन : मीमांसक वेदवचनों को ही प्रमाणभूत मानते हैं, और उसपर ही विश्वास करते हैं। क्योंकि वे इसे ईश्वरकृत ग्रंथ मानते हैं, इसलिये इसे अपौरुषेय ग्रंथ कहते हैं / अपौरुषेय वेदवचनों का परमार्थ-रहस्य ज्ञानी के बिना कौन समझा सकता है ? मीमांसकों को ज्ञानी की खोज तो करनी ही पड़ती है। क्योंकि वेद के परमार्थ को न समझने वाला कोई अज्ञानी अगर वेद का उपदेश करने लगे, तो कितने ही सामान्य बुद्धिजीवी लोग अन्याप्ति, अतिव्याप्ति, असंभव आदि दोषों से युक्त असिद्ध, असम्भवित और व्यभिचार आदि दोषों से व्यापक अर्थ को ग्रहण करेगे और परमार्थ से वंचित होकर ठगे जायेंगे। ऐसे भय से शंकित होकर मीमांसक विद्वान स्वयं वेद के रहस्य को तात्त्विक रूप से समझाने वाले किसी ज्ञानी की खोज करते हैं / ज्ञानी के बिना वेदों पर विश्वास कौन कर सकता है ? अतः वेदवचनों की जानकारी के लिये भी ज्ञानी की तो जरुरत रहती ही है / सर्वज्ञोक्त वाणी को सर्वज्ञ के बिना कौन समझा सकता है // 439 // तस्मादनुष्ठानगतं, ज्ञानमस्य विचार्यताम् / कीटसंज्ञापरिज्ञानं, तस्य नः क्वोयुज्यते // 440 // अर्थ : तो इसके (सर्वज्ञ के) अनुष्ठानोपयोगी ज्ञान पर ही विचारे, उसकी कीट संख्या का ज्ञान हमारे क्या उपयोगी है ? किस काम का है ? // 440|| विवेचन : अपौरुषेय वेद के परमार्थ को न जानने वाले किसी अज्ञानी के उपदेश से अनर्थ होगा? ऐसी शंका से बचने के लिये मीमांसक कुमारिल भट्ट ने बताया है कि जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त किये जाने वाले वेदोपदिष्ट अग्निहोत्र आदि अनुष्ठानोपयोगी ज्ञान को ही हम प्रमाण मानते हैं। ऐसा ज्ञान जिसमें हो, उसे ही हम सर्वज्ञ भाषित मानते हैं, क्योंकि वही ज्ञान उपयोगी है। जिसमें ऐसा ज्ञान नहीं, ऐसा सर्वज्ञ पुरुष 'आकाश में इतने भारण्डपक्षी है। समुद्र में इतने मत्स और मछलियां हैं / इतने मगरमच्छ और इतने कछुए हैं / ' इस प्रकार जगत के देवगण, मनुष्यगण और पशुगण की संख्या गिनने में उनकी प्रवीणता और उन सर्वज्ञों का ज्ञान हमारी आत्मा के लिये पारमार्थिक रूप से कोई उपयोगी नहीं / ऐसे ज्ञान से, ऐसे सर्वज्ञों से हमें कोई प्रयोजन नहीं / अतः अनुष्ठानों में जो ज्ञान उपयोगी हो, उसी का विचार करना चाहिये, उसी को प्रमाण मानना चाहिये / अमुक वस्तु में इतने कीड़े है, इतने परमाणु हैं, ऐसी संज्ञा का विशेष ज्ञान हमारे किस काम का हैं ? // 440 // हेयोपादेयतत्त्वस्य, साभ्युपायस्य वेदकः / यः प्रमाणमसाविष्टो, न तु सर्वस्य वेदकः // 441 //