________________ 254 योगबिंदु ज्ञायत्वस्वभाव है वह मिथ्या हो जाता है, उसका अभाव हो जाता है। और फिर उसे चेतन न मानकर, जड़ स्वभावी मानना पड़ता है, जो कि षह है नहीं और किसी को भी इष्ट भी नहीं है। इसलिये सूक्ष्मबुद्धि से विचारें कि अगर प्रतिबंधक के अभाव में भी आत्मा सर्वज्ञ न हो; तो आत्मा का ज्ञायत्वस्वभाव ही नहीं रहता / जैसे आकाश अमूर्त होने पर भी स्व-स्वभाव से सभी पदार्थों को अवकाश याने स्थान देता है, वैसे ही आत्मा का ज्ञान स्वभाव होने से और पदार्थों में ज्ञेयत्व स्वभाव होने से सर्वज्ञ सभी पदार्थों का ज्ञाता होता है // 437 / / एवं च तत्त्वतोऽसारं, यदुक्तं मतिशालिना / इह व्यतिकरे किञ्चिच्चारुबुद्धया सुभाषितम् // 438 // अर्थ : इस प्रकार बुद्धिशाली (कुमारिल भट्ट)ने यहाँ सर्वज्ञ निषेध के सम्बंध में जो कुछ भी सुन्दर बुद्धि से सुभाषित कहा, वह पारमार्थिक दृष्टि से व्यर्थ है // 438 / / विवेचन : पूर्वोक्त सत्य युक्तियों से सर्वज्ञत्व की सिद्धि होने पर भी मीमांसक पण्डित महान् बुद्धिशाली, जगत प्रसिद्ध तार्किक शिरोमणि कुमारिल भट्ट ने जो सर्वज्ञत्व का निषेध किया है कि "जगत में कोई भी सर्वज्ञ हो ही नहीं सकता", वह निषेध केवल बुद्धि का विलास है, भाषा और वाणी का विलासमात्र है। उसमें परमार्थ दृष्टि का अभाव है, इसलिये वह व्यर्थ है / ग्रंथकर्ता का कुमारिल भट्ट के लिये मतिशाली, चारुबुद्धि और सुभाषित इन तीन विशेषणों के प्रयोग का अभिप्रायः उनके प्रति आदर नहीं अपितु उनके वाक्चातुर्य पर कटाक्ष किया है / आनंदघनजी ने भी कहा है कि तर्क विचारे रे वाद परम्परा रे पार न पहुचे रे कोय / अभिमत वस्तु वस्तुगते लहे रे ते विरला जग जोय / सर्वज्ञ जैसा तथ्य तर्क से सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि उससे वाद फिर अन्य क प्रतिवाद, प्रतिवाद इस प्रकार कोल्हु के बैल की भाँति वादों की परम्परा प्रारम्भ हो जाती है, और परिणाम कुछ नहीं आता / वस्तु हाथ नहीं आती। कुमारिलभट्ट के तर्क, सुभाषित और वाणी, परमार्थ की दृष्टि से व्यर्थ बताई है, क्योंकि वह वस्तु अनुभूति जन्य है / अनुभूति ही सत्य का सच्चा दर्शन करवा सकती है // 438 // ज्ञानवान् मृग्यते कश्चित्, तदुक्तप्रतिपत्तये / अज्ञोपदेशकरणे, विप्रलम्भनशङ्किभिः // 439 //