________________ योगबिंदु 249 ऐसा न माने तो "मूलं नास्ति कुतः शाखा", जब केवलज्ञान को ही स्वीकार नहीं करे तो केवलीभाषित उपदेश और उनके उपदेशरूप आगम, अंग, प्रत्यंग, उपांगों की रचना कैसी ? याने असंभव है, जो कि उचित नहीं है। इस तथ्य का विस्तृत विवेचन 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' आदि ग्रंथों में किया है // 429 // तथा चेहात्मनो ज्ञत्वे, संविदस्योपपद्यते / एषां चानुभवात् सिद्धा, प्रतिप्राण्येव देहिनाम् // 430 // अर्थ : इस प्रकार लोक में आत्मा के चिद्प सिद्ध होने पर इसके (आत्मा के) संविद्ज्ञान की सिद्धि हो जाती है और यह (वस्तु) देहधारी प्राणीमात्र को अनुभव सिद्ध है // 430 // विवेचन : नाणं च दंसणं चेव, चरितं च तवो तहा / / वीरियं उवओगो अ, एअं जीवस्स लक्खणम् // ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग रूप गुण स्वभावों से युक्त आत्मा है, आत्मा का यह लक्षण पूर्व में बता चुके है। इसी बात को स्पष्ट करते हुये बताते हैं कि चेतन और जड़ सर्व पदार्थों से व्यापक इस लोक में सर्व जीवात्माएं ज्ञानस्वरूप है, उस ज्ञान को अन्यमतवाले चिद् कहते हैं / आत्मा चिद् स्वरूप होने से ही चेतन कहा जाता है / अतः आत्मा का चैतन्य स्वरूप ज्ञान से भिन्न नहीं, अपितु ज्ञानस्वरूप ही है। क्योंकि जहा-जहा चैतन्य है वहा-वहा ज्ञान है / चैतन्य के बिना ज्ञान असंभव है और ज्ञान भी चैतन्य के सिवाय कहीं नहीं रहता / उस चिद्ज्ञान द्वारा क्षयोपशमभाव से, जितने अंश में आत्मा के आवरण दूर होते हैं, उतने अंश तक आत्मा को स्व और पर वस्तु का संविद्-ज्ञान होता है / जीवात्मा के ज्ञानगुण पर सर्वथा आवरण कभी नहीं आता / आत्मा के ज्ञानगुण का अनन्तवां भाग तो हमेशा खुला ही रहता है / इसीलिये सुख-दुःख का बोध व्यक्त अथवा अव्यक्त रूप से आत्मा को अवश्य होता है / कहा भी है : अक्षरस्याऽनंतभागो, नित्योद्घाटित एव हि / निगोदीनामपि भवेदित्येतत्परिणामिकः // अक्षर- कभी भी नाश न होने वाला, सदा - शाश्वत रहने वाला ज्ञान, जीवात्मा में सत्ता रूप से तो संपूर्ण विद्यमान होता है परन्तु आवरणों में दबा रहने से अनुभव में नहीं आता / निगोद जैसे प्राणियों में भी अक्षर का अनन्तवें भाग जितना ज्ञान तो नित्य खुला ही रहता है / जैसे-जैसे मन, वचन और काया की शक्तियाँ विकसित होती है वैसे-वैसे ज्ञानावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से आत्मा का ज्ञानगुण अनुक्रम से बढ़ता रहता है / वह ज्ञान आत्मा से भिन्न नहीं, क्योंकि कोई भी द्रव्य अपने गुण और पर्यायों से अलग नहीं होता। अगर ज्ञान गुण को आत्मा से भिन्न माने तो अन्धे के हाथ में दीपक होने पर भी, जैसे वह पास में रही वस्तु को नहीं देख सकता, वैसे ही