________________ योगबिंदु 247 प्रकृष्टपुण्यसामर्थ्यात्, प्रातिहार्यसमन्वितः / अवन्ध्यदेशनः श्रीमान्, यथाभव्यं नियोगत: // 426 // अर्थ : उत्कृष्ट पुण्य के सामर्थ्य से, प्रातिहार्य से युक्त, सफल देशना वाले, श्रीमान -केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी से युक्त परमात्मा भवितव्यता के योग से (देशना में प्रवृत्त होते हैं) ||426|| विवेचन : पूर्व जन्म में तीर्थंकर, गणधर आदि पूज्य पुरुषों की, शुद्धभाव से सेवाभक्ति करने से, उत्तरोत्तर पुण्य सामर्थ्य के बढ़ने से जिसने तीर्थंकर नाम कर्म को निकाचितरूप से बांध लिया है और उस उत्कृष्ट पुण्य कर्म के प्रकृष्ट उदय से तथा तीर्थंकरपद के योग्य आठ प्रातिहार्यों से युक्त तीर्थंकर केवली देशना देते है / जैसा कहा है : अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिः दिव्यध्वनिश्चामरभासनञ्च / भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं, सत्प्रातिहार्याणि-जिनेश्वराणाम् // अशोक वृक्ष, देव कृत पुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि, सिंहासन, चामर, भामण्डल, देव-दुंदुभि और छत्र ये आठ प्रतिहार्य देवताओं द्वारा भक्तिपूर्वक किये जाते हैं / उपरोक्त आठ प्रातिहार्यों से युक्त, अवन्ध्य देशनाले - जिसकी देशना कभी भी निष्फल नहीं जाती वैसे तीर्थंकर देशना देते है। जब भी वे समवसरण में धर्मोपदेश देते हैं। किसी को सर्व विरति, किसी को देश विरति प्रकट होती है। और किसी को सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है; सभी पर उपदेश का असर होता है / केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी से युक्त-वह केवलज्ञानी, भवितव्यता के योग से देशना में प्रवृत्त होता है // 426 // केचित् तु योगिनोऽप्येतदित्थं नेच्छन्ति केवलम् / अन्ये तु मुक्त्यवस्थायां, सहकारिनियोगतः // 427 // अर्थ : कितने ही योगी तो इस केवलज्ञान को ऐसा (अतीन्द्रिय विषयक) नहीं मानते और दूसरे मुक्तावस्था में सहकारी-कारण (इन्द्रियमन) के वियोग से नहीं मानते // 427 // विवेचन : कितने ही जैमिनीय, मीमांसक आदि पण्डित जो वेदवचन को ही प्रमाण मानते हैं, अध्यात्मादि योग द्वारा शुद्ध स्वरूप को पाने पर भी, पूर्वोक्त अतीन्द्रिय ज्ञान वाले केवलज्ञान को स्वीकार नहीं करते / वे कहते हैं - ज्ञान का कारण पांच इन्द्रिय और मन है और वही जगत के पदार्थों का ज्ञान करवाने में समवायी कारण हैं / इन्द्रियों के सहकार के बिना जीवात्मा किसी भी वस्तु को जान अथवा देख नहीं सकता। इसलिये अतीन्द्रियज्ञान जैसी कोई वस्तु नहीं है। मीमांसको ने कहा भी है : अतीन्द्रियाणामर्थानां, साक्षात् दृष्टा न विद्यते / वचनेन हि नित्येन, यः पश्यति स पश्यति //