________________ 246 योगबिंदु है, तो उसके चूर्ण में बीजत्व विद्यमान होने से अनेक मेंढकों की उत्पत्ति होती है। परन्तु अगर चूर्ण को जलाकर अगर उसकी भस्म बना दी जाय; तो फिर उसमें पानी का संयोग होने पर भी, मेंढक की उत्पत्ति नहीं हो सकती-इसे मण्डूकभस्मन्याय कहते हैं / इसी प्रकार जप, तप, ध्यान तथा अकामनिर्जरा से आत्मा कर्मों का नाश तो करती है, परन्तु मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, रागद्वेष मोहनीय कर्म की बीजभूत योग्यता विद्यमान होने से, कषायरूप पानी मिलते ही अथवा विषयभोगरूप लालच पाते ही, साधक यथाप्रवृत्ति से पतित होकर पुनः संसारवृद्धि का कारण बनता है / परन्तु अविरति बादर, सूक्ष्मसंपराय, क्षीणमोह गुणस्थान में स्थिर महामुनि ध्यानाग्निशुक्लध्यानरूपी अग्नि से सर्ववृत्ति रूप कर्मों को जलाकर, कर्मबीजभूत योग्यता को नष्ट करके, परम कल्याण का भागी बनता है-मोक्षपदभोक्ता बनता है // 423 // यथोदितायाः सामग्यास्तत्स्वभाव्यनियोगतः / योग्यतापगमोऽप्येवं, सम्यक्ज्ञेयो महात्मभिः // 424 // अर्थ : इस प्रकार यथोक्त (अध्यात्मादि) सामग्री की प्राप्ति और उक्त योग्यता की निवृत्ति भी भव्यत्व योग्यतारूप स्वभाव के योग से ही होती है - ऐसा महापुरुषों ने जाना है // 424 // विवेचन : शास्त्रोक्त अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षय रूप योग सामग्री की उपलब्धि और उससे कर्मबीजरूप योग्यता का नाश, जीव की तथाप्रकार की भवितव्यता के योग से प्राप्त होती है। अध्यात्मादि योग की सहायता से तथाभव्यत्व स्वभाव से कर्म-योग्यता का नाश होता है ऐसा महापुरुषों ने अपने ज्ञान में देखा है // 424 // साक्षादतीन्द्रियानर्थान्, दृष्ट्वा केवलचक्षुषा / अधिकारवशात् कश्चिद्, देशनायां प्रवर्तते // 425 // अर्थ : केवलज्ञान रूपी चक्षु से अतीन्द्रिय पदार्थों को साक्षात देखकर, कोई (तीर्थंकरपद योग्य जीव) योग्यता विशेष से देशना-धर्मोपदेश देने में प्रवृत्त होता है // 425 // विवेचन : छद्मस्थ आत्मा पांच इन्द्रिय और मन द्वारा जिन पदार्थों को जान नहीं सकता; देख नहीं सकता; इन्द्रियों से परे ऐसे अतीन्द्रिय आत्मा, कर्म, परलोक आदि पदार्थों को, केवली भगवान अपने केवलज्ञान रूपी दिव्यचक्षु से हस्तामलकवत-साक्षात देखते हैं और भूत, भावी, वर्तमानकाल के सभी गुण-पर्यायों को प्रत्यक्ष जानते हैं (और कोई तीर्थंकर पद योग्य जीवात्मायें एवं गणधर आदि) और अपनी योग्यता विशेष से-अधिकार विशेष से, भव्यात्माओं को संसार में डूबता देखकर, उन पर करुणा लाकर, उनको प्रतिबोध देने के लिये समवसरण में धर्म का उपदेश देते हैं / / 425 //