________________ 244 योगबिंदु सर्व भाव ज्ञाता-दृष्टा सह शुद्धता, कृतकृत्य प्रभु वीर्य अनंत प्रकाश जो // 15 // इस प्रकार चारित्र मोहनीय को पराजित करके, अपूर्व करण, अनिवृत्ति करण, सूक्ष्म संपराय यथाख्यात् चारित्र रूप क्षीण मोह स्थान से, क्षपक श्रेणी पर आरुढ़ होकर, मोह रूपी स्वयंभूरमण समुद्र को पार करके, जीव वीतराग होकर, केवली अवस्था को प्राप्त करता है, जो अनंत प्रकाश रूप है // 420 // असंप्रज्ञात एषोऽपि, समाधिर्गीयते परैः / निरुद्धाशेषवृत्त्यादि तत्स्वरूपानुवेधतः // 421 // अर्थ : अन्यमत वाले असंप्रज्ञात समाधि के नाम से जिसे गाते है, स्वरूप के अनुभव से सिद्ध होने वाला, समस्त वृत्तियों के निरोधरूप यह वृत्तिसंक्षय ही (तो) है // 421 // / विवेचन : संप्रज्ञात समाधि के पश्चात् अर्थात् केवलीत्व अवस्था प्राप्त होने के पश्चात् योगी लोग असंप्रज्ञात समाधि में जाते हैं, अर्थात् मन, वचन और काया के समस्त व्यापारों का निरोध करते हैं / समस्त पुद्गल सम्बंध इस अवस्था में छूट जाते हैं और आत्मस्वरूप का बोध-भान हो जाने से वे आत्मा में ही रमण करते हैं / जिसे हम वृत्तिसंक्षय योग कहते हैं उसे पतञ्जलि आदि अन्य महर्षि उसे असंप्रज्ञात समाधि कहते हैं / अपूर्व अवसर में श्रीमद् राजचन्द्रजी ने सुन्दर बताया है। मन वचन काया ने कर्मनी वर्गणा, छूटे जिहाँ सकल पुद्गल संबंध जो; एवं अयोगि गुणस्थानक तिहां वर्ततु; महाभाग्य सुखदायक पूर्ण अबंध जो // 17 // अपूर्व अवसर संप्रज्ञात समाधि की स्थिति सयोगी केवली की स्थिति है और असंप्रज्ञात समाधि की स्थिति अयोगिकेवली की स्थिति हैं / सयोगी केवली की स्थिति को संप्रज्ञात समाधि कहते हैं और अयोगी केवली की स्थिति को असंप्रज्ञात समाधि कहते हैं। केवल शब्दों में अन्तर है अवस्था में अन्तर नहीं // 421 // धर्ममेघोऽमृतात्मा च, भवशत्रः शिवोदयः / सत्त्वानन्दः परश्चेति, योज्योऽत्रैवार्थयोगतः // 422 // __ अर्थ : धर्ममेघ, अमृतात्मा, भवशक, शिवोदय, सत्त्वानन्द और परसमाधि इत्यादि की योजना यहाँ अर्थानुसार कर लेनी चाहिये // 422 / /