________________ योगबिंदु 243 एवमासाद्य चरम, जन्माऽजन्मत्वकारणम् / श्रेणिमाप्य ततः क्षिप्रं, केवलं लभते क्रमात् // 420 // अर्थ : इस प्रकार क्रमशः अन्तिम जन्म को पाकर, जिसमें नये जन्म का कारण नष्ट हो गया है, ऐसी क्षपकश्रेणी को प्राप्त करके अनुक्रम से जीव केवलज्ञान को प्राप्त करता है // 420 // विवेचन : इस प्रकार अध्यात्मयोग, भावनायोग, ध्यानयोग और समतायोग के सतत् अभ्यास से पूर्व सञ्चित सर्व कर्मों को क्षय करके, अन्तिम इस जन्म में, अजन्मत्व के कारणभूत क्षपकश्रेणी को प्राप्त करके, आत्मस्वरूप का घात करने वाले सर्वघाती कर्मों का समूल नाश करके, जीव क्रमशः केवलज्ञान और केवलदर्शन को शीघ्र ही प्राप्त करता है / इस शक्ति को अन्य दर्शनकार संप्रज्ञात समाधि कहते हैं, इसी को हम समतायोग कहते हैं / इस संप्रज्ञात समाधि का फल केवलज्ञान और केवलदर्शन है। __आत्मविकास की चौदह सीढ़ियों को जैन लोग चौदह गुणस्थान नाम से मानते हैं / उसमें दो प्रकार की मान्यता है / एक मान्यता यह है कि आठवे, नौवें, दसवें गुणस्थान को पार करके फिर वह ग्यारहवें गुणस्थान में आता है। दूसरी मान्यता यह है कि आठवें, नौवे और दसवें गुणस्थान से सीधे १२वें गुणस्थान में आ जाता है। उनका मानना है कि जो साधक क्रमशः ग्यारहवें गुणस्थान में आता है, वह जरुर एकबार पतित होता है, नीचे गिरता है / लेकिन जो दसवें से सीधा १२वें गुणस्थान में आ जाता है वह मोक्ष को प्राप्त करता है। एक उपशम श्रेणी होती है और एक क्षपकश्रेणी होती है। उपशमश्रेणी वाला पतित हो जाता है लेकिन क्षपकश्रेणी वाला शीघ्र ही मोक्ष का अधिकारी बनता है / ग्रंथकर्ता ने इसीलिये कहा है कि क्षपकश्रेणी को प्राप्त करके केवलज्ञान प्राप्त करता है। श्रीमद् राजचन्द्र जी ने इस अवस्था को अपूर्व अवसर इस प्रकार में कहा हैं : "एम पराजय करीने चारित्रमोहनो, आq त्यां ज्यां करण अपूर्व भाव जो; श्रेणी क्षपक तणी करीने आरुढ़ता, अनन्य चिंतन अतिशय शुद्ध स्वभाव जो // 13 // मोह स्वयंभूरमण समुद्रतरी, करी, स्थिति त्यां ज्यां क्षीणमोहगुण स्थान जो; अंत समय त्यां पूर्ण स्वरूप वीतराग थई, प्रकटावं निज केवलज्ञान निधान जो // 14 // चार कर्म घनघाती ते व्यवच्छेद ज्यां, भवनां बीजतणो आत्यन्तिक नाश जो;