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________________ 240 योगबिंदु ग्रन्थिभेदे यथैवायं, बंधहेतुं परं प्रति / नरकादिगतिष्वेवं, ज्ञेयस्तद्धेतुगोचरः // 416 // अर्थ : जैसे ग्रंथीभेद होने पर, बंध-कर्मदल की उत्कृष्ट स्थिति के बंध में किसी भी कारण को निश्चय से कारणता नहीं है / नरक आदि गति विषय में भी उस हेतु में अकारणता रही हुई है // 416 // विवेचन : जैसे ग्रंथि का भेद होने पर बंध-कर्मदल की उत्कृष्ट स्थिति का बंध करने में करणभूत मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग रूप हेतुओं के लिये कारण का अभाव है। इसलिये मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति (सत्तर कोटा-कोटी सागरोपम) तथा अन्य कर्म के दलों की स्थिति में मिथ्यात्वादिक की अवश्यहेतुता है, ऐसा हम कहते हैं, पर आप परवादी तो अकेले पुरुषार्थ के ही कारण मानते हैं / आपसे यह कहना है कि जिस प्रकार ग्रंथि भेद करने में वैसे कारणों का अवश्य ही निश्चयतापूर्वक अभाव है, वैसा आपका कहना है, उसी प्रकार नरक, तिर्यंच आदि भव की गति के उत्कृष्ट बंध में मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग की अवश्य कारणता हमारे अनुसार है / आपका तो एक पुरुषकार के अतिरिक्त अन्य कारण मानता नहीं है, उसी न्याय व उक्ति से नरक आदि भवों की गति में आपको पुरुष प्रयत्न ही (पुरुषकार ही) अकेला कारण मानना पड़ेगा और अन्य योग्यता आदि को कारण नहीं मान सकते / वैसे ही जिसे आवश्यक हेतुता हो उन कारणों को कर्मदलों को तोड़ने में मिथ्यात्व आदि के नाश के कारणरूप ग्रंथिभेद में वैसे करणों-कारणों में शुद्धोपयोग युक्त वीर्य सम्यक् ज्ञान-दर्शन-चारित्र के सहकार योग से जागता है / इस कारण से जैसा आप कहते है कि ग्रंथि भेद में एक आत्मवीर्यरूप पुरुषार्थ को ही कारणता है, उसी प्रकार नरक आदि के हेतुभूत आठो कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति आदि के बंध में अकेले पुरुषार्थ को ही आपको कारणभूत मानना चाहिये / विपरित गमन के साथ मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग की अवश्य हेतुता रही हुई है यह आप नहीं मान सकते, क्योंकि आपके मत में पुरुषार्थ के अतिरिक्त अन्य कारणों को स्वीकार करने का निषेध है // 416 // अन्यथाऽऽत्यन्तिको मृत्यु यस्तत्राऽगतिस्तथा / न युज्यते हि सन्यायादित्यादि समयोदितम् // 417 // अर्थ : इस प्रकार अन्य कारणों को यदि निश्चय से अकारण मानते हैं, तो अत्यन्त अभावरूप मृत्यु - पुनः-पुनः उस गति में याने संसार में जन्म मरण घटित नहीं हो सकता अतः सत्य न्याययुक्त आगम में प्ररूपित तत्त्वों को मानना चाहिये // 417 // विवेचन : कर्मबंध के हेतु मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और अशुभयोग की योग्यतारूप
SR No.032246
Book TitlePrachin Stavanavli 23 Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHasmukhbhai Chudgar
PublisherHasmukhbhai Chudgar
Publication Year
Total Pages108
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
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