________________ योगबिंदु 239 विवेचन : मूंग में पकने के स्वभाव की योग्यता विद्यमान होने पर ही पाचक-रसोइये का पुरुषार्थ-पकाना सफल हो सकता है। अगर स्वभाव की योग्यता को न स्वीकारें तो योग्यताविहीन कोड़कु मूंग भी पकने चाहिये / पाचक-कोड़कू मूंग को पकाने का पूरा पुरुषार्थ करता है परन्तु फिर भी वह पकता नहीं / उसका पुरुषार्थ व्यर्थ जाता है क्योंकि स्वभाव की योग्यता को न मानना न्याय विरुद्ध - युक्ति विरुद्ध है। इसलिये स्वभाव की योग्यता को स्वीकार करना ही चाहिये // 414|| ग्रंथकार यहाँ यह बताना चाहते हैं कि पांच समवाय कारण को छोड़कर केवल एकान्त पुरुषार्थ से ही कार्य सिद्धि नहीं हो सकती / अतोऽकरणनियमात्, तत्तद्वस्तुगतात् तथा / वृत्तयोऽस्मिनिरुध्यन्ते, तास्तास्तद्बीजसम्भवाः // 415 // अर्थ : इस कारण से स्वभाव आदि के निश्चय करण के तौर पर नहीं माने और पुरुषकार के ही अकेला कारण माने तो आत्मारूप वस्तु में रही हुई जो वृत्तियाँ है, उन-उन कर्मों के बीज से जो कार्य संभव है, उनका निरोध कर अकेले पुरुषकार से उनका होना मानना पड़ेगा / 415|| विवेचन : अगर पुरुषार्थ को ही कार्यसिद्धि में एकान्त कारण माने और नियति, स्वभाव, काल, पूर्वकृत कर्म जो निश्चय करण रूप हैं-उसे कार्य में अकारण-अहेतुक माने तो जीवात्माओं ने पूर्वकाल में यहाँ आरंभ, समारंभ, जीववध, असत्य, चौरी, मैथुन, परिग्रह आदि जो निकाचित कर्मबंध किया हुआ है वह नरक और तिर्यंचगति का हेतुभूत है अत: जीवात्मा को वस्तुस्वरूप से उदय में आये हये उन-उन पाप कर्मों को भोगने के लिये वैसी-वैसी गतियों में उत्पन्न होना पड़ता है / सर्वज्ञ जिनेश्वर परमात्मा द्वारा उपदिष्ट प्रकरणों-आगमों के अनुसार जो कहा गया है वैसी नरक गमनयोग्य वृत्तियाँ रूप प्रवृत्ति, जो विचित्र स्वभाव वाली है, वह अवश्य पुरुषार्थ-पुरुष प्रयत्न से रुकनी चाहिये, लेकिन रुकती नहीं / क्योंकि वैसा कर्मरूप लक्षण जिसमें बीजभूत रहा हुआ है वैसी वृत्तियाँभाव की परिणतियां नरक गमन में हेतुभूत है / उस वृत्ति के स्वभाव से वैसी नरकगति का संभव जीवात्मा के असत् विपरीत-उल्टे मिथ्या पुरुषार्थ से पांचों कारणों के योग से उत्पन्न हुआ हुआ है, वह कैसे नष्ट हो सकता है? नहीं हो सकता, निकाचित व्यर्थ भोगना ही पड़ता है / इसी प्रकार स्वरूपप्राप्ति की योग्यता से, सत्पुरुषार्थ के योग से, नये कर्मबंध के हेतुओं के त्याग से और अशुभकर्मबंध को तप, जप, ध्यान, व्रत, पच्चखाण, सद्गुरु के योग से, कर्म निर्जरा करते हुये तथाप्रकार की योग्यता आदि कारणों के सहयोग से योग्य पुरुषार्थ करते हुये इष्ट साध्य को सिद्ध करता है // 415 // ग्रंथकर्ता दृष्टान्त देकर समर्थन करते हुये बताते हैं :