________________ 238 योगबिंदु होता है। इस प्रकार की अनुभूतियों के पश्चात् जब आत्मा योग में दृढ़ हो जाती है, उसे 'उत्तमयोगअध्यात्मादि वास्तविक योग-जो मोक्ष की ओर ले जाने वाला हो' उसकी प्राप्ति होती है // 412 / / आत्मा कर्माणि तद्योगः, सहेतुरखिलस्तथा / फलं द्विधा वियोगश्च, सर्वं तत्तत्स्वभावतः // 413 // अर्थ : आत्मा और कर्म का परस्पर संयोग अनादि सहेतुक है। उसका दो प्रकार का फल, शुभाशुभ और वियोग सब उसकी स्वभाव की योग्यता से होता है // 413 / / विवेचन : चैतन्य स्वरूप आत्मा और आत्मा से पर, अन्यपुद्गल स्वरूप कर्म का परस्पर संयोग, लोहाग्निवत सहेतुक बताया है। जैसे तप्त लोहे में अग्नि और लोहे को भिन्न-भिन्न नहीं देख सकते उसी प्रकार कर्मों से लिप्त आत्मा को अलग-अलग नहीं देख सकते / वह हेतु है मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय आदि / अनादि काल से जीव राग-द्वेषमोहात्मक कर्मबंधन की बीजभूत योग्यता से तथाप्रकार के शुभाशुभ अध्वसायों से, दो प्रकार के शुभ और अशुभ कर्मों को बांधता है। और उन शुभाशुभ कर्मों के विपाक स्वरूप चार गति और चौरासी के चक्कर में दुःखी होकर, भ्रमण करता है परन्तु जब वह उन कारणों-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय आदि का सर्वथा नाश कर देता है, तो उस कर्मबंधन की योग्यता का सर्वथा वियोग हो जाता है / वह मोक्ष का अधिकारी बनता है। इस प्रकार परस्पर कर्मों का संयोग-सम्बंध, उससे शुभाशुभ कर्मों का बंधन और कर्मों का सर्वथा वियोग, जीव अपनी स्वभाव की योग्यता से ही करता है। कर्मों का संयोग और वियोग सब आत्मा के स्वभाव की योग्यता पर ही निर्भर है। अर्थात् हमेशा आत्मा और कर्म का परस्पर संयोग सहेतुक-सकारण है / उसके कारण मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषायादि से राग-द्वेष रूप कर्म-बंधन की जो बीजभूत योग्यता है उससे आत्मा तथाप्रकार के अध्यवसायों द्वारा कर्म बंधन करता है। वह कर्म बंधन अनादि काल से बांधता आया है और उन कर्मों के फल स्वरूप शुभाशुभ विपाकों को भोगता है और चार गति और चौरासी के चक्कर में भटकता है। जब वही आत्मा राग-द्वेष रूप कर्मबंधन की बीजभूत योग्यता का नाश करती है, तब वही मोक्ष का अधिकारी होता है। अतः आत्मा के साथ कर्मों का संयोग और वियोग स्वभाव की योग्यता से ही होता है // 413 // अस्मिन् पुरुषकारोऽपि, सत्येव सफलो भवेत् / अन्यथा न्यायवैगुण्याद्, भवन्नपि न शस्यते // 414 // अर्थ : स्वभाव की योग्यता विद्यमान होने पर ही पुरुषार्थ सफल होता है नहीं तो, पुरुषार्थ होने पर भी व्यर्थ है क्योंकि वह न्याय विरुद्ध है // 414 //