________________ योगबिंदु 237 आगमेनानुमानेन, ध्यानाभ्यासरसेन च / त्रिधा प्रकल्पयन् प्रज्ञां, लभते योगमुत्तमम् // 412 // अर्थ : आगम से, अनुमान से और ध्यानाभ्यास में रुचि होने से, इन तीनों उपायों से बुद्धि को प्रयुक्त करने वाला, उत्तम योग को उपलब्ध होता है // 412 // विवेचन : अगोचर-जो इन्द्रिय से न जान सके, ऐसी आत्मा, कर्म, परलोक आदि अतीन्द्रिय विषयों के सम्बंध में जब तक पूरी जानकारी न हो, उसके अस्तित्व पर दृढ़ विश्वास न हो, तब तक आत्मस्वरूप का बोधरूप उत्तमयोग उसे प्राप्त नहीं हो सकता / साधारण मनुष्य की बुद्धि सीमित है, ज्ञान अल्प है, इसलिये इन पदार्थों का निश्चय करने के लिये ग्रंथकर्ता ने आर्ष पुरुषों द्वारा रचित आगमों की सहायता लेने की सलाह दी है। क्योंकि दिव्यदृष्टि योगियों के वचन ही योगमार्ग के पथिक के लिये प्रकाशस्तम्भ है / इसलिये ऐसे विषयों में आगम प्रमाण, प्रमाणभूत है। इसी प्रकार अनुमान प्रमाण से भी कुछ अंश तक उसका बोध हो सकता है। जैसे 'जहाँ-जहाँ चैतन्य है, वहाँवहाँ आत्मा है' / चैतन्य याने सुख-दुःख का ज्ञान जिसमें हो, वह आत्मा-जीव कहा जाता है / ऐसा ज्ञान पर्वत, घर, दुकान, घट, पट आदि जड़ पदार्थों में नहीं होता, इसलिये वहाँ चैतन्य का अभाव है / जीवात्मा में सुख- दुःख का ज्ञान करवाने वाला चैतन्य होने से वह चैतन्य को धारण करने वाला चेतन है। चैतन्य सर्वदा नित्य है इसलिये बचपन की स्मृति वृद्धत्व में आती है, पूर्वजन्म की स्मृति इस जन्म में भी आती है, उसमें कारण कर्म का तथाप्रकार का क्षयोपशमभाव है / अतः वह इसका उपादान कारण हुआ इस प्रकार आत्मा अनेक जन्म और मरण करने वाली है - यह सिद्ध हुआ। इस भव में संस्कार न देने पर भी कई आत्माओं में वैसा संस्कार देखने में आता है, तो वह सब पूर्वजन्म के संस्कार के कारण ही होता है / इस प्रकार अर्थापत्ति प्रमाण से आत्मा अनेकजन्म को धारण करने वाला सिद्ध होता है / कहा भी है : यः कर्ता कर्मभेदानां भोक्ता कर्मफलस्य च / संसर्ता परिनिर्वाता, स ह्यात्मा न हि अन्यलक्षणम् // जो आत्मा शुभाशुभ करने वाली है, वही उसकी भोक्ता है तथा संसार में भ्रमण करने वाली भी वही है और संसार का क्षय करके, मोक्षसुख का अनुभव करने वाली भी वही है। ऐसे लक्षण वाली आत्मा है, इसके सिवाय आत्मा का दूसरा कोई लक्षण नहीं / तीसरा उपाय-ध्यान के अभ्यास में रस होना बताया है यह अन्तिम उपाय है / आगम प्रमाण से, अनुमान प्रमाण से, अर्थापत्ति आदि प्रमाणों से आत्मादि सिद्ध होने पर भी योगी जब ध्यान का अभ्यास करता है और उसमें उसको जब रस पैदा हो जाता है, रुचि पैदा हो जाती है तो ध्यान द्वारा जो एकाग्रता प्राप्त होती है उससे, उसे आत्मा में योग अनुभूत होता है / ध्यान वस्तु ऐसी है कि साधक को योगमार्ग का प्रत्यक्ष अनुभव