________________ 236 योगबिंदु अर्थ : उत्साह, निश्चय, धीरज, सन्तोष, तत्त्वदर्शन और जनपदत्याग इन छ: (गुणों) से मुनि का योग सिद्ध होता है // 411 // विवेचन : योगमार्ग में प्रवेश पाने के लिये साधक में सर्वप्रथम उत्साह, उमंग, आत्मवीर्य को विकसित करने की आवश्यता होती है / कायर, सुखशील, आलसी, प्रमादी व्यक्ति योगाभ्यास नहीं कर सकता। कहा भी हैं :- "प्रभुनुं मार्ग छे शूरानो, कायरनुं नहि काम रे" उपनिषदों में भी स्पष्ट लिखा है "नायं आत्मा बलहीनेन लभ्यः" / योगी में दूसरा गुण निश्चय बल चाहिये / "कार्यं साधयामि वा देहं पातयामि" ऐसा दृढ़ संकल्पी साधक ही अपने लक्ष्य में सफल हो सकता है / जो अपने लक्ष्य के लिये दृढ़ नहीं वह त्रिशंकु की भांति 'इतो भ्रष्टस्ततोभ्रष्टः' होकर असफल हो जाता है / तीसरा गुण धीरज बताया हैं, क्योंकि इस मार्ग में सैकड़ों विघ्न आते हैं; अनेक प्रलोभन भी आते हैं; अनुकूल-प्रतिकूल उपसर्ग भी आते हैं / देव, दानव, गंधर्व आदि की तरफ से ललचाने वाले अनेक प्रसंग उपस्थित होते है; जिसमें साधक का मन चंचल हो उठता है; सुख में और दुःख में, अनुकूलता और प्रतिकूलता में, हानि और लाभ में भी चित्त को स्थिर रखने के लिये धीरज गुण की परम आवश्यकता है। क्रोध, मान, माया और लोभ जैसे अतिदुष्कर कषायों को मूल से नष्ट करने के लिये अगर कोई उपाय है तो वह धीरज ही है। धीर पुरुष ही योग में उपस्थित सभी उपप्लवों को तैर सकता है और सफल हो सकता है / चौथा गुण सन्तोष बताया है, आहार, वस्त्रपात्र आदि जीवनोपयोगी वस्तुओं की अनुकूलता कम हो; तब भी उसी में परम सन्तोष मानना और अपनी आत्मा में ही रमण करना; बाहर की अनुकूलता और प्रतिकूलता पर हर्ष, शोक न करके, आत्मनिष्ठ रहना; इस प्रकार सन्तोषी व्यक्ति ही योगी बनने के योग्य हो सकता है। पांचवा गुण तत्त्वदर्शन बताया है- जगत के जीवअजीव, पाप-पुण्य, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष को जानना; चिन्तन मनन करना कि आत्मा क्या है? जगत क्या हैं ? मैं कौन हूं? कहाँ से आया हूं? किस सम्बंध से सांसारिक प्रपंचों में पड़ा हूं ? क्या सत्य है ? क्या असत्य हैं ? इस प्रकार अभ्यासपूर्वक तत्त्व-जो सार पदार्थ है उसका दर्शन करने वाला अर्थात् तत्त्व-संसार में मोक्ष की प्राप्ति ही है, उसी को जीवन का सारभूत समझकर, उसमें प्रयत्न करने वाला ही योगमार्ग को पा सकता है / छठा गुण बताया है जनपद का त्याग, भवानुगतिक लोक व्यवहार भी साधना में बाधाकर है, कर्म बंधन का कारण है। कहा भी है जितना व्यवहार उतना संसार, जिसको अध्यात्म की साधना करनी है उसे लोक में होने वाली देशकथा, भक्तकथा, राजकथा और स्त्रीकथा से दूर रहना चाहिये, उनका सर्वथा त्याग करना चाहिये / अथवा जनपद-देश का त्याग भी योग्य है, कारण कि स्वदेश में सगे-सम्बंधी, पुत्र, स्त्री आदि को देखने से रागादि की प्रवृत्ति होती है, जो इस मार्ग में विघ्नकारक है। इस प्रकार योग सिद्धि के लिये इन छ: गुणों की परम आवश्यकता है / इन छ: से ही योगसिद्धि होती है // 411 //