________________ 235 योगबिंदु मूलं च योग्यता ह्यस्य, विज्ञेयोदितलक्षणा / पल्लवा वृत्तयश्चित्रा, हन्त तत्त्वमिदं परम् // 409 // __ अर्थ : इसका (भववृक्ष का) मूल पूर्वोक्त योग्यता है और अनेकविध वृत्तियाँ पत्ते हैं / यही परम तत्त्व है // 409 // विवेचन : जैसे वृक्ष का मूल वृक्ष की वृद्धि का हेतु है, वैसे ही कर्मबंधन की आत्मा की जो योग्यता है वह राग-द्वेष, मोह की ग्रंथी ही संसाररूपी वृक्ष का मूल है, और उसकी वृद्धि का कारण है / आत्मा की अनेक प्रकार की चेष्टारूप वृत्तियाँ इसके पत्ते हैं / पूर्व श्लोकों में भी इस योग्यता के सम्बंध में विस्तृत विवेचन किया गया है / इसलिये मन स्थिर करके, इसी सिद्धान्त को श्रेष्ठ समझें, यही उत्तम सिद्धान्त है। __जैसे वृक्ष की जीवन निर्वाहिका नाड़ी उसके मूल में रहती है वही वृक्ष को जीवन देती है ऋा उसी प्रकार नारक, निर्यञ्च, देव, मनुष्यरूप भवपरम्परा रूपी संसारवृक्ष को जीवन देने वाली उसकी जड़, आत्मा में रहने वाली भववृद्धि की योग्यता ही है। योग्यता अर्थात् राग-द्वेष, मोह की भयंकर गांठ ही संसारवृक्ष का मूल है / वृक्ष जैसे पत्तों का समूह रूप होता है वैसे ही संसार वृक्ष को संजीवन रखने वाली जीवादि की मन-वचन-काया द्वारा की जाने वाली क्रिया-व्यापार रूप विचित्र-विविध प्रकार की चेष्टारूप वृत्तियाँ हैं / यही संसाररूपी वृक्ष को अनन्त काल तक जीवन देती हैं और वही फल-फूल, उनके स्वादरूपी रस देने वाले, उदय में आने वाले कर्म विपाक है। यह तथ्य पूर्व में विस्तृत वर्णन किया जा चुका है, अतः संसार का मूल कारण योग्यता को मानना ही यथार्थ है, यही उत्तम न्याय है // 409 // उपायोपगमे चास्या, एतदाक्षिप्त एव हि / तत्त्वतोऽधिकृतो योग उत्साहादिस्तथाऽस्य तु // 410 // अर्थ : इस (योग्यता के) नाश का उपाय भी साथ में ही कह दिया है कि तात्त्विक (अध्यात्मादि) योगाभ्यास आरम्भ करना; यह (अभ्यास) उत्साहादि से पुष्ट मन की स्थिति से होता है // 410 // विवेचन : अध्यात्म, भावना, ध्यान आदि तात्त्विक योगाभ्यास का जो विस्तृत विवेचन किया है, उससे जीव की कर्म जन्य योग्यता का सर्वथा नाश हो जाता है और वह योग उत्साह, निश्चय आदि नीचे बताये जाने वाले गुणों से विशेष पुष्टावलम्बन रूप बनता हैं // 410 // उत्साहान्निश्चयाद् धैर्यात्, संतोषात् तत्त्वदर्शनात् / मुनेर्जनपदत्यागात्, षड्भिर्योगः प्रसिध्यति // 411 //