________________ 234 योगबिंदु विवेचन : स्थूल - जो दूसरे को दिखाई दे सके और सूक्ष्म - जो दूसरे को दिखाई न दे सके / ऐसी आत्मा की अनेक प्रकार की जो चेष्टाएँ है, उन्हें आत्मा की वृत्तियाँ कहते हैं। वे चेष्टा रूप वृत्तियाँ कर्म से पैदा होती हैं और कर्म की उत्पत्ति का मूल कारण आत्मा में रही हुई तथाप्रकार की योग्यता हैं, इसलिये योग्यता को कर्म का बीज बताया है // 406 / / तदभावेऽपि तद्भावो, युक्तो नातिप्रसङ्गतः / मुख्यैषा भवमातेति, तदस्या अयमुत्तमः // 407 // अर्थ : उसके (योग्यता के) अभाव में भी उसका होना (कर्म संयोग) माने तो अतिव्याप्तिदोष होने के कारण उचित नहीं है, अत: मुख्य रूप से यही (योग्यता ही) भव-संसार की जननी है और यही न्याय उत्तम है // 407 // विवेचन : आत्मा में कर्म ग्रहण करने की और छोड़ने की योग्यता को यदि स्वीकार न करे, अर्थात् इस योग्यता के अभाव में भी कर्म का होना माने, तो अतिव्याप्ति दोष आ जाता है। सिद्धों में - मुक्त जीवों में योग्यता का अभाव होता है, इस लक्षण के अनुसार उनको भी पुनः संसार में आना पड़ेगा और उन्हें भी कर्म बंधन लागू होगा जो उचित नहीं है। इसलिये वह योग्यता ही संसार की जननी है संसार का मुख्य हेतु है, यही न्याय उत्तम है, अन्य नहीं // 407 // पल्लवाद्यपुनर्भावो, न स्कन्धापगमे तरोः / स्यान्मूलापगमे यद्वत्, तद्वद् भवतरोरपि // 408 // अर्थ : वृक्ष के स्कन्ध का उच्छेद करने पर पत्र, पुष्प, फल आदि का नाश नहीं होता; मूल नाश होने पर होता है, ऐसे ही संसार रूपी वृक्ष का है // 408 // विवेचन : जैसे वृक्ष का तना काटने पर पुनः कुछ समय के पश्चात् उस पर शाखा, प्रशाखा, पत्र, फूल और फल लगते हैं, उसका नाश नहीं होता, क्योंकि उस वृक्ष का मूल विद्यमान है। यदि मूल ही काट दिया जाय या जला दिया जाय, तो पुनः उस वृक्ष की उत्पत्ति की सम्भावना समाप्त हो जाती है / जब 'मूल नास्ति कुत शाखाः' जब मूल ही नष्ट हो गया तो शाखा, प्रशाखा, फलफूल कहाँ से संभव है ? इसी प्रकार संसार रूपी वृक्ष का मूल - राग, द्वेष और मोह है उसका मूल से उच्छेद करने पर ही चार गतिरूपी शाखा, चौरासी लाख योनि रूपी प्रशाखा, भवपरम्परा रूपी पत्र, कर्मबंधन रूपी फूल, आधि, व्याधि, उपाधि, रोग, शोक, भय, पराधीनता, जन्म मरण रूपी फलों का नाश होता है। जब तक योग्यता रूपी मूलबीज का सर्वथा नाश नहीं होता भवपरम्परा का नाश नहीं हो सकता / राग-द्वेष, मोह आदि को नष्ट किये बिना, धार्मिक शुभानुष्ठानों से जो संसार का नाश चाहता है, वह वृक्ष का केवल तना काट कर, उसमें पत्र, पुष्प, फलों का अभाव चाहता हैं। यह अभिलाषा व्यर्थ है // 408 / /