________________ 232 योगबिंदु विवेचन : सभी प्राणियों के प्रति हृदय में मैत्री और बंधुत्व की भावना रखना / अपने से गुणों में जो अधिक हैं ऐसे गुणीजनों के प्रति, मन में प्रमोद भावना रखना, अर्थात् दूसरे के गुणों को देखकर, खुश होना और गुणों की अनुमोदना करना / दीन-दुःखी, ग्लान, व्याधिग्रस्त अनेक प्रकार के दुःखों से पीड़ितों के प्रति दिल में करुणा, भाव-दया, अनुकम्पा सहानुभूति रखना और उनके दुःखों को दूर करने की भावना रखना / समझाने पर भी जो समझते नहीं और अपनी दुष्टता को छोड़ते नहीं, ऐसे मूढ और धूर्त प्राणियों के प्रति तटस्थभाव रखना भी अध्यात्मयोग है। ऐसा महापुरुषों का मानना है। क्योंकि "तुलसी इस संसार में भांत भांत के लोग" उन विविध प्राणियों के प्रति चार भावना का चिन्तन करने से आत्मा कर्म बंधन से बच जाती है। कर्म से लिप्त न होकर, निर्मल रहती है इसलिये चिन्तन-अध्यात्मयोग का सहायक होने से इन्हें भी उसी का अंग माना है // 402 // विवेकिनो विशेषेण, भवत्येतद् यथागमम् / तथा गम्भीरचित्तस्य, सम्यग्मार्गानुसारिणः // 403 // अर्थ : विशेषतः आगमानुसार यह (मैत्र्यादिभावनाओं का चिन्तन) विवेकी, गम्भीरचित्त और शुद्धनिवृत्ति पथ के पथिक को होता है // 403 // विवेचन : आगमों में मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ - इन चार भावनाओं का चिन्तन रूप जो अध्यात्मयोग बताया है, ऐसा अध्यात्म योग विशेषतः उसी साधक को उपलब्ध होता है जो विवेकवान होता है। ऐसा विवेकी साधक पेय-अपेय, भक्ष्य-अभक्ष्य, कृत्य-अकृत्य, हेय-उपादेय, जड़-चेतन का विवेक जिसमें जागृत हो और जिसका चित्त गम्भीर हो, जीवन-मरण, सुख-दुःख, लाभ-अलाभ, मान-अपमान आदि द्वन्द्वों का असर जिनके मुख पर दिखाई नहीं देता और सभी द्वन्द्वों को जो समभाव पूर्वक सहन करता है / जिसे उत्तराध्ययन में गाया है : लाभालाभे सुहे दुःखे; जीविये मरणे तहा / समो निन्दा पसंसासु, तहा माणावमाणओ // गीता में भी कहा है : दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः, सुखेषु विगतस्पृहः / वीतरागमयक्रोधः, स्थितधीर्मुनिरुच्यते // अध्याय 2, श्लोक 56 ऐसे स्थित-प्रज्ञ गभीर चेता साधक को, और जो मोक्षमार्ग का सम्यक् प्रकार से अनुसरण करने वाला है, ऐसे मोक्षपथ के पथिक साधक को, ही इस अध्यात्मयोग की प्राप्ति हो सकती है। विवेकी, गम्भीर, मुमुक्षु व्यक्ति ही ऐसे योग को उपलब्ध कर सकता है // 403||