________________ योगबिंदु 231 संक्षेप में प्रतिक्रमण - षट्आवश्यकरूप कर्तव्य है और समिति-गुप्ति-गुरुविनयादि भंगरूप जो दोष हैं, वे दोनों काल प्रतिक्रमण करने से दूर होते हैं और दोष न होने पर भी करना, तृतीय औषधि के समान कल्याणकारी है // 400 // निषिद्धासेवनादि यत्, विषयोऽस्य प्रकीर्तितः / तदेतद् भावसंशुद्धेः, कारणं परमं मतम् // 401 // अर्थ : निषिद्ध का सेवन करने से जो अतिचार लगते हैं उसकी शुद्धि के लिये ही प्रतिक्रमण किया जाता है, क्योंकि प्रतिक्रमण भावशुद्धि-अन्तःकरण की शुद्धि का परम साधन माना है // 401 // विवेचन : कहा भी है : पडिसिद्धाणं करणे, किच्चाणमकरणे य पडिक्कमणं / असद्दहणे अ तहा, विवरीअ-परुवणाए अ // वंदितु सुत्र गाथा 48 तीर्थंकर वीतराग परमात्मा अथवा गीतार्थ महापुरुषों द्वारा प्रतिनिषीद्ध आचार-विचारों को करना और शास्त्रविहित आचार-विचारों को नहीं करना, वीतरागदेवों के प्रति अश्रद्धा रखना और उनकी आज्ञा से विपरीत प्ररूपणा करना, अतिचाररूप है-दोषरूप है। दिनभर में लगे उन अतिचारों को शुद्ध करने के लिये ही प्रतिक्रमण किया जाता है, उनकी शुद्धि करना ही प्रतिक्रमण का विषय है / अर्थात् प्रतिक्रमण का यही काम है कि वह लगे दोषों को मूल से नष्ट कर देता है, क्योंकि वह (प्रतिक्रमण) हृदयशुद्धि का मुख्य साधन है। प्रतिक्रमण करने से दोष क्षय होते हैं और सम्यक्दर्शन शुद्ध होता है / वीतराग देव के प्रति आदर, बहुमान और श्रद्धा पैदा होती है / उनकी सेवा पूजा करने में मन संलग्न होता है। चित्त के दोष मिट जाने से हृदय शुद्ध हो जाता है। अध्यवसाय निर्मल हो जाते हैं / इसलिये प्रतिक्रमण आत्मशुद्धि का परम हेतु कहा गया है / रात्रि में लगे अतिचारों को शुद्ध करने के लिये, प्रात: उठते ही प्रतिक्रमण किया जाता है और दिन में लगे अतिचारों की शुद्धि के लिये, सायं को प्रतिक्रमण किया जाता है / इस प्रकार प्रातः काल और सायं दोनों काल प्रतिक्रमण करके, साधक पाप के भार से मुक्त हो जाता है। इसलिये इसे हृदयशुद्धि का परम साधन कहा है // 401 // मैत्री-प्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थ्यपरिचिन्तनम् / सत्त्व-गुणाधिक-क्लिश्यमानाप्रज्ञाप्यगोचरम् // 402 // अर्थ : प्राणियों में (मैत्री), गुणाधिकों में (प्रमोद), क्लिष्टों के प्रति (करुणा), अप्राज्ञोंमूों के प्रति (मध्यस्थ भावना); क्रमशः मैत्री, प्रमोद, करुणा और मध्यस्थ भावना का चिन्तन करना भी अध्यात्म है // 402 //