________________ 226 योगबिंदु स्वौचित्यालोचनं सम्यक्, ततो धर्मप्रवर्तनम् / आत्मसंप्रेक्षणं चैव, तदेतदपरे जगुः // 389 // अर्थ : निज योग्यता का सम्यक् प्रकार से पर्यालोचन करना, तत्पश्चात् धर्म में प्रवृत्ति करना और आत्म संप्रेक्षण (इन तीनों) को अन्य शास्त्रकारों ने अध्यात्म कहा है // 389 // विवेचन : अन्य शास्त्रकारों ने भी बताया है कि सर्वप्रथम साधक को अपनी शक्ति, सामर्थ्य और योग्यता का अच्छी तरह से परीक्षण कर लेना चाहिये कि मेरी शक्ति कितनी हैं ? योग्यता कितनी हैं? अपनी शक्ति और योग्यता की मर्यादा को बराबर लक्ष्य-ध्यान में लेकर ही धर्म विषयक तप, जप, भावपूजा, द्रव्यपूजा, गुरुभक्ति, जिनपूजा, भावना, कायोत्सर्ग, ध्यान, समाधि आदि जो-जो धर्मानुष्ठान करने योग्य हो उसमें यथाशक्ति प्रवृत्ति करनी चाहिये / ऐसा करने से जरूर आत्मशुद्धि होती है। मोहनीय कर्म के आवरण पतले पड़ते हैं और आत्मगुणों का विकास होता है। आत्मबोध होता है। अतः आत्मा की योग्यता की विचारणा, धर्मक्रिया में भावसहित प्रवृत्ति और उससे होने वाले आत्मबोध (इन तीनों को) अध्यात्म कहा है // 389 // योगेभ्यो जनवादाच्च, लिङ्गेभ्योऽथ यथागमम् / स्वौचित्यालोचनं प्राहुर्योगमार्गकृतश्रमाः // 390 // अर्थ : योगमार्ग में किया है श्रम जिन्होंने, ऐसे योगियों ने बताया है कि योगों से (मन, वचन, काया के योग से), लोक प्रवाह से तथा निमित्तों से आगम के अनुसार (जो भी धर्मप्रवृत्ति करे) अपनी शक्ति की मर्यादा का पर्यालोचन करके करे // 390 // विवेचन : योगाभ्यासियों ने कहा है कि मन, वचन और काया के योग से जो उचित प्रवृत्ति हो सकती है; लोकव्यवहार के अविरुद्ध वह प्रवृत्ति हो सकती है और पशु, पक्षी आदि के मुख से सहसा निकले शब्दों से, शकुन निमित्तों से जो उचित प्रवृत्ति हो सकती है वह आगमशास्त्रानुसार होनी चाहिये और अपनी शक्ति की मर्यादा को ध्यान में रखकर होनी चाहिये / यही प्रथम अध्यात्मयोग का प्रथम अंगरूप स्वौचित्यालोचन है // 390 // योगाः कायादिकर्माणि, जनवादस्तु तत्कथा / शकुनादीनि लिङ्गानि, स्वौचित्यालोचनास्पदम् // 391 // अर्थ : कायादि की प्रवृत्ति योग है, लोक सम्बंधी कथा जनवाद है और शकुनादि लिंग है (ये) स्वौचित्यालोचन के स्थान हैं // 391 // विवेचन : मन, वचन और काया की व्यापार प्रवृत्ति को योग कहते हैं / लोक कथाजो आत्मा को उपयोगी हो, और धर्मानुसार कही जाती हो, जो पापाचरण में हेतु न बनती हो ऐसी लोककथा के सम्बंध में और लिंग-पशु, पक्षी या मनुष्य के मुख से सहसा निकले हुये वचन जिसे