________________ योगबिंदु 225 त्याग करने की भावना, श्वासोश्वास में मंत्र को आत्मसात् करने की भावना से छोड़ा गया जाप, छोड़ा गया नहीं कहा जाता, अपितु स्थिति को सुधारने में उपयोगी सिद्ध होता है, इसलिये ऐसा त्याग वास्तव में त्याग नहीं // 386 // यथाप्रतिज्ञमस्येह, कालमानं प्रकीर्तितम् / अतो ह्यकरणेऽप्यत्र, भाववृत्तिं विदुर्बुधाः // 387 // अर्थ : इसका (जाप का) कालमान यहाँ प्रतिज्ञानुसार कहा है; प्रतिज्ञा से उपशान्त काल में, जप न चलता हो; तब भी भावनारूपी वृत्ति को यहाँ बुद्धिमानों ने (जपतुल्य) माना है // 387 // विवेचन : जप का समय अपनी धारणानुसार निश्चित किया जाता है / कब-कितना समय मुझे जाप करना है व्यक्ति मन में जैसा धारण कर ले; प्रतिज्ञा कर ले; अभिग्रह धारण कर ले, तब तक वह कर सकता है। जैसे सामायिक का कालमान दो घड़ी की प्रतिज्ञारूप है वैसे ही ध्यानकर्ता या जापकर्ता अपनी प्रतिज्ञानुसार जाप का कालमान निश्चित करता है। उसकी प्रतिज्ञा पूर्ण हो चुकी हो; तदुपरान्त भी उसकी मनोवृत्ति शुद्ध और पवित्र हो, तब भले ही जाप न भी चलता हो, फिर भी बुद्धिमानों ने उसे जपतुल्य ही माना हैं, क्योंकि चित्तशुद्धि जप की आधारशिला है // 387 / / मनीन्द्रैः शस्यते तेन, यत्नतोऽभिग्रहः शुभः / सदाऽतो भावतो धर्मः, क्रियाकाले क्रियोद्भवः // 388 // अर्थ : (जप के अन्य समय में) यत्नपूर्वक शुभ अभिग्रह धारण करने को मुनीश्वरों ने प्रशस्त माना है, क्योंकि सदा भाव से ही धर्म का लाभ होता है / क्रिया के समय क्रियोद्भव धर्म होता है // 388 // विवेचन : जाप के सिवाय अन्यत्र काल में भी साधक को शुभ-अभिग्रहों को धारण करना मुनियों ने प्रशस्त बताया है। जाप संपूर्ण हो चुका हो, बाद में भी मन को प्रयत्नपूर्वक शुभ अभिग्रहों संकल्पों में लगाना चाहिये / जैसे मन का निग्रह करने के लिये अशुभ व्यापारों को छोड़ने का दृढ़ संकल्प पूर्ण निश्चय करना, मन को शुभ में लगाने के लिये जिनपूजा, गुरु-भक्ति, गुण, स्तुति, विनय, वैयावृत्य, तप, उपवास आदि करने का सकंल्प, शुभ मैत्री, प्रमोद, कारुण्य आदि चारों भावनाओं को धारण करने का (अभिग्रह-दृढ़ निश्चय करना), परिषह और उपसर्ग आने पर भी धर्म मार्ग पर अडिग रहने का जो शुभ संकल्प है उसे मुनियों ने प्रशस्त बताया है / क्योंकि भावशुद्धि योग के लिये अनिवार्य है / वह तो योग की नींव है। उसी से हमेशा धर्म का, पुण्य का लाभ होता है और भावयुक्त किया ही इष्टफल को देती है। संक्षेप में मुनियों ने भावधर्म को प्रधान बताया है क्योंकि परिणामशुद्धि ही योग की आधार शिला है / शुभ और सत्संकल्प प्रशंसनीय है, क्योंकि वहीं साधक को उपर उठाता है // 388 //