________________ 224 योगबिंदु होनी चाहिये जैसे हम किसी वीतराग की प्रतिमा के सामने बैठे हैं / मंत्र के वाच्यार्थ के अनुसार अधिष्ठायक देव का नाम स्मरण, आदर और बहुमान पूर्वक उनके गुणों में मन की वृत्तियों को लगा देने से चित्त स्थिर हो जाता है / एकाग्रता में वृद्धि होती है; मन के परिणाम शुद्ध होते हैं और इस प्रकार योग की शुद्धि होती है; ऐसा प्रयत्न करने पर भी यदि मन की वृत्तियां चंचल हो जाय; मन स्थिर न रहे तो थोड़ी देर के लिये जाप को छोड़ दे / कहने का तात्पर्य यह है कि मंत्र का जाप करते समय मन को मंत्र के अक्षरों पर और अर्थ पर, प्रतिमा पर केन्द्रित करें और उस मंत्र के वाच्य अर्थ के अनुसार मंत्राधिष्ठातादेव के गणों में, उनके विशिष्ट जीवन में, मन को इस प्रकार लगा दे कि चित्त अन्यत्र कहीं भी न जा सके / लेकिन ऐसा करने पर भी मन स्थिर न रहे तो उसके साथ जबरदस्ती न करें / थोड़ी देर के लिये जाप छोड़ दें। क्योंकि जबरदस्ती से मन शान्त होने के बजाय और अधिक उच्छृखल हो उठता है // 385 // मिथ्याचारपरित्याग आश्वासात् तत्र वर्तनम् / तच्छुद्धिकामना चेति, त्यागोऽत्यागोऽयमीदृशः // 386 // अर्थ : ऐसा यह (मन की क्षुब्ध उपप्लवस्थिति में जप का त्याग) त्याग, त्याग नहीं होता क्योंकि उसमें (मंत्रजाप में) मिथ्याचार का त्याग, उसके परित्राण की (जपरक्षा की) प्रवृत्ति और शुद्धि की कामना रही हुई हैं // 386 // विवेचन : जब मन की स्थिति क्षुब्ध हो उठे - चंचल हो जाय तब मंत्रजाप का त्याग करना ही उचित हैं, क्योंकि अव्यवस्थित चित्त से किया मंत्रजाप इष्टफल को नहीं दे सकता / इसलिये इस अवस्था में जाप का त्याग करने से मिथ्याचार-मिथ्या आचार, बाहर का दिखावा, छल, कपट, दम्भ का त्याग होता है, क्योंकि अन्दर तो कोलाहल है और बाहर योगी दिखता है / अन्दर कुछ है; बाहर कुछ और है तो यह दम्भ और मिथ्याचार ही हुआ, और ऐसी स्थिति में जाप का त्याग करने से मिथ्या आचार का त्याग हुआ / जबरदस्ती जाप करने से दुष्ट इन्द्रिय विकारों का निरोध होने के बजाय उन्माद हो जाता है और महामिथ्यात्व का उदय हो जाता है तथा आत्मा योगमार्ग से भ्रष्ट हो जाती है। इसलिये चंचल अवस्था में जप, ध्यान, समाधि नहीं की जाती / मंत्रजाप श्वासोश्वास में व्याप्त होना चाहिये / अर्थात् दूध में जल की भांति जब श्वासोश्वास मंत्रमय, एकरूप, एक रस हो जाता है तभी वह इष्ट फल सिद्धि में हेतु बनता है। जिस आत्मा की चित्तवृत्ति शुद्ध नहीं, उसे योगमंत्र के जाप का अधिकार नहीं, क्योंकि जाप में मन, वचन और काया की शुद्धि अनिवार्य है / इसलिये कहा है कि जब मन की शुद्धि न हो तब जाप का त्याग करना चाहिये। ऐसी स्थिति में जाप के त्याग से जाप का अनादर नहीं; अपितु सच्चे अर्थ में तो आदर ही होता है / आशय यह है कि मन की उपप्लव क्षुब्ध स्थिति को शुद्ध करने की कामना, मिथ्याचार के