________________ 222 योगबिंदु प्राथमिकता की अपेक्षा से जप को अध्यात्मयोग कहा है क्योंकि वह देवता के अनुग्रह का अंग (कारण) है / इसलिये यह प्रथम अंग कहा जाता है // 381 // विवेचन : योगमार्ग में प्रवेश पाने के लिये 'इष्टदेव के स्मरणरूप' 'जाप' मंगलाचरणरूप है। वह (योग का प्रथम अंगरूप) जाप हाथ के पर्वो पर अथवा नवकारवाली (माला) द्वारा भी किया जाता है। उससे धीरे-धीरे मन की एकाग्रता बढ़ती है और मानसिक स्थिरता बढ़ने से उस जाप के अधिष्ठायक देव की साधक पर अनुग्रह-कृपा होती है, अत: जाप योग में प्रवेश करने का मंगलद्वार है और इसीलिये योगियों ने उसे अध्यात्मयोग में स्थान दिया है। ग्रंथकर्ता का आशय है जाप से मानसिक स्थिरता बढ़ती है जो योग के लिये सर्वप्रथम अनिवार्य वस्तु है इसीलिये जाप को योग का प्रथम अंग माना है // 381 // जपः सन्मन्त्रविषयः स चोक्तो देवतास्तवः / दृष्टः पापापहारोऽस्माद्, विषापहरणं यथा // 382 // अर्थ : (योगियों ने) देवता के स्तवन को जप कहा है, वही मंत्र का सच्चा विषय है / इससे (जाप से) पापनष्ट होते हैं जैसे कि विषापहारी मंत्रों से विष नष्ट हो जाता है // 382 / / विवेचन : एक ही मंत्र को बार-बार परावर्तन करना, पुनः-पुनः गिनना 'जाप' होता हैं। वह इष्टदेव की स्तुतिरूप होता है, यही उसका सच्चा विषय है। मंत्रजाप से मंत्र का अधिष्ठाता देव प्रकट होता है, प्रसन्न होता है। क्योंकि मंत्र सच्चे शक्तिशाली देव विशेष से अधिष्ठित होता है इसलिये ऋषभदेव, शांतिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीरस्वामी आदि किसी भी तीर्थंकर के नाम के साथ ॐ हीं श्री क्ली आदि प्रणव आदि बीज मन्त्रों के साथ, नमः से स्वाहा पर्यन्त गिनना अर्थात् "ॐ ह्रीं श्री क्ली ऋषभनाथाय नमः स्वाहा", इसी प्रकार अन्य चौबीस तीर्थंकर अथवा किसी भी इष्ट देव का जाप सच्चा मंत्ररूप होता है। उसकी नवकारवाली गिनना, अंगुली के पर्वो पर खुला जाप करना भी अध्यात्मयोग का प्रथम अंग है-भेद है। उसका फल यह है कि मंत्र जाप से मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, प्रमाद आदि महापाप नष्ट हो जाते हैं। जैसे किंपाक, अफीम, कटुतुम्बड़ी आदि का स्थावर विष और सर्प, बिच्छु आदि का जंगम विष, विविध विष विषापहारी मंत्रों के जाप से नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही परमात्मा के जाप से जन्म, जरा, मृत्यु रूप भवभ्रमण के, हेतुरूप मिथ्यात्वादि नष्ट हो जाते हैं // 383 / / देवतापुरतो वाऽपि, जले वाऽकलुषात्मनि / विशिष्टद्रुमकुञ्जे वा, कर्तव्योऽयं सतां मतः // 383 // अर्थ : सत्पुरुषों का मानना है कि जाप देवता के आगे, जल के पास अकलुषितमन से, उत्तम प्रकार के वृक्ष, पेड़, कुंजों आदि में करना चाहिये // 383 //