________________ योगबिंदु 221 विवेचन : यहाँ अल्प आस्रव वाले सयोगी केवली के योग को जो 'अनास्रवयोग' कहा है, वह निश्चयनय की दृष्टि से नहीं कहा है, व्यवहारनय की दृष्टि से कहा है क्योंकि यहाँ पर व्यवहारनय से ही अर्थ अभीष्ट है। वैसे सर्वत्र निश्चयनय और व्यवहारनय दोनों से अर्थ निश्चय किया जाता है। निश्चयनय की अपेक्षा से तो अयोगीकेवली का योग ही अनास्त्रव है। परन्तु यहाँ सयोगी केवली के आस्रव अल्प होने से व्यवहारनय की अपेक्षा से अनाश्रवयोग कहा है // 378 // संक्षेपात् सफलो योग, इति सन्दर्शितो ह्ययम् / आद्यन्तौ तु पुनः स्पष्टं, ब्रूमोऽस्यैव विशेषतः // 379 // अर्थ : (इस प्रकार) संक्षेप से फल सहित योग (अध्यात्मादियोग) बताया है। इसके आदिअन्तिम (अध्यात्म और वृत्तिसंक्षय) भेद को पुनः विशेष स्पष्ट करते हैं // 379 // विवेचन : अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षय रूप योग को श्लोक 351 से 361 तक फल सहित बता चुके हैं / अध्यात्म क्या है ? और उसका फल क्या हैं ? भावना किसे कहते हैं और उससे क्या-क्या लाभ होता है? ध्यान क्या है और उसका परिणाम क्या है ? समता क्या वस्तु है और उसका जीवन पर क्या प्रभाव है, इस प्रकार संक्षेप में फल सहित योग बताया है। अतः पुनः इन पाँचों भेदों में से आदि-अध्यात्म को और अन्तिम वृत्तिसंक्षय रूप योग को विशेष प्रकार से विस्तारपूर्वक बताते हैं // 379 / / तत्त्वचिन्तनमध्यात्ममौचित्यादियुतस्य तु / उक्तं विचित्रमेतच्च, तथावस्थादिभेदतः // 380 // अर्थ : उचितता पूर्वक तत्त्वस्वरूप का चिन्तन करना अध्यात्म योग है तथा इसे अवस्थादिभेद से अनेक प्रकार का कहा है // 380 // / विवेचन : औचित्यगुण से युक्त और आदि शब्द से मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा भावना पूर्वक तत्त्व चिन्तन (तत्त्वस्वरूप का विचार करना) अर्थात् पारमार्थिक भावना को ही अध्यात्म कहा है और द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव रूप अवस्थाभेद से वह अनेक प्रकार है // 380 // आदिकर्मकमाश्रित्य जपो ह्यध्यात्ममुच्यते / देवतानुग्रहाङ्गत्वादतोऽयमभिधीयते // 381 // अर्थ : (योगमार्ग में) प्रथम क्रिया का आधार जप है इस अपेक्षा से (जप को) अध्यात्म कहा है, यह देवता के अनुग्रह का अंग (कारण) है, इसलिये यह (प्रथम - अध्यात्म योग) कहा जाता है। अथवा