________________ 220 योगबिंदु या अशुभ कर्म केवल भोगते हैं; नये कर्म का बंध जो जन्म का हेतु है, नहीं बांधते तथा सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र का उपयोग तीव्र होता है। ऐसे अध्यात्म योगियों को अनास्त्रव योग होता है। वे इसी भव में शुद्ध क्षायिकभाव से, सर्वकर्मों को क्षय कर, सिद्धि पद को प्राप्त करते हैं // 375 // आस्रवो बन्धहेतुत्वाद् बन्ध एवेह यन्मतः / स साम्परायिको मुख्यस्तदेषोऽर्थोऽस्य सङ्गतः // 376 // अर्थ : आस्रव ही बंध का हेतु है और बंध से ही जन्म है इसलिये सास्रवयोग साम्परायिक (काषायिक) है और इसका यही मुख्यार्थ यथार्थ है // 376 / / विवेचन : टीकाकार ने टीका में बताया है 'आस्रवति-आपतति कर्म यस्मिन् स आस्रवः शुद्धोऽशुद्धश्च योगभूत आस्रवः' जिस मार्ग से शुभ या अशुभ कर्म आते हैं वह आस्रव है; वही (आस्रव) बंध का हेतु है / व्यवहारनय से कारण में कार्य का उपचार किया है वह उचित ही है। यह बात हमारे गीतार्थ पुरुषों को भी मान्य है, क्योंकि संसार का हेतु, ऐसा साम्परायिक रूप जो कषाय है वह बंध का हेतु होने से, उसे सास्रव योग कहते हैं, वह अर्थ उपयुक्त है // 376 / / एवं चरमदेहस्य सम्परायवियोगतः / इत्वरावभावेऽपि, स तथाऽनास्त्रवो मतः // 377 // अर्थ : इस प्रकार सम्परायकर्म के वियोग से, सूक्ष्म आस्रवभाव होने पर भी चरमशरीरी का योग अनास्रव माना है // 377 / / विवेचन : जैसे सापाय-सकषाययोगी को सास्रवयोग कहा है वैसे ही चरमशरीरी-इसी भव में मोक्षगामी जीव के सम्पराय-कषायकर्म सब नष्ट हो जाते हैं / केवल ज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् जब तक देह रहती है, तब तक शारीरिक और वाचिक ऐसे हलके लघु आस्रवकर्म होते हैं, परन्तु वे कर्म बंध न का कारण नहीं होते, उनकी तुरन्त निर्जरा होती रहती है / इसलिय उन चरमशरीरी महापुरुषों का योग अनास्रवयोग कहा गया है / संसार में जिसके पास अल्पवस्त्र हो उसे नग्न ही कहा जाता है / वैसे ही यहाँ अल्प आस्रव कर्म होने पर भी व्यवहारनय की अपेक्षा से उसे अनास्रव योग कहा है // 377 // निश्चयेनात्र शब्दार्थः, सर्वत्र व्यवहारतः / निश्चय-व्यवहारौ च, द्वावप्यभिमतार्थदौ // 378 // अर्थ : यहाँ (अनास्रव) शब्द का अर्थ निश्चय ही व्यवहारनय से किया है / सर्वत्र निश्चय और व्यवहारनय के अनुसार ही अर्थ इष्ट होता है // 378 / /