________________ योगबिंदु 217 TTOT - - - तब तक साथ जब तक हृदय का स्वभाव का. मन का परिवर्तन साधुवेश भी कुछ नहीं कर सकता // 370|| चारित्रिणस्तु विज्ञेयः, शुद्धयपेक्षो यथोत्तरम् / ध्यानादिरूपो नियमात्, तथा तात्त्विक एव तु // 371 // अर्थ : भावचारित्री का ध्यानादिरूप योग उत्तरोत्तर शुद्धि की अपेक्षा वाला होता है, इसलिये उसे निश्चयनय से तात्त्विक ही जानें // 371 // विवेचन : भावचारित्र को धारण करने वाले साधुपुरुषों का ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षयरूप योग निःसन्देह तात्त्विक ही होता है क्योंकि उनका योग उत्तरोत्तर शुद्धि पर ही आधारित है, टिका हुआ है। शुद्ध उपयोगी महात्माओं को अध्यात्म और भावना में, जितने प्रमाण में शुद्धि और सिद्धि प्राप्त होती है, उसके अनुसार ही श्रेष्ठ, श्रेष्ठतर, श्रेष्ठतम शुद्धि - धर्मध्यान, समता और वृत्तिसंक्षय में होती है / अर्थात् अध्यात्म और भावना की शुद्धि से धर्मध्यान में वृद्धि होती है, और धर्मध्यान में शुद्धि और वृद्धि होने पर समता में वृद्धि होती है, और समता बढ़ने से वृत्ति संक्षय की शक्ति बढ़ती है। इस प्रकार एक योग की शुद्धि और वृद्धि पर दूसरा, दूसरे पर तीसरा, तीसरे पर चौथा और चौथे पर पांचवा शुद्धि और वृद्धि पाता है / भाव चारित्री को यह योग निश्चित ही होते हैं / इसलिये इनके योग को तात्त्विक - पारमार्थिक कहा है // 371 // अस्यैव त्वनपायस्य, सानुबन्ध स्तथा स्मृतः / यथोदितक्रमेणैव, सापायस्य तथाऽपरः // 372 // अर्थ : अनपाय (योगबाधक क्लिष्ट कर्मों से रहित) योगाधिकारी का योग पूर्वोक्तकम से सानुबंध (विघ्न रहित) कहा है और सापाय (अनपाय से विपरीत) का अननुबंध योग (विघ्न सहित) कहा है // 372 // विवेचन : पूर्वोक्त अध्यात्म और भावनायोग जिसमें होता है ऐसे अपुनर्बन्धक योगी को योग प्रवृत्ति में बाधा डालने वाले निकाचित क्लिष्ट मिथ्यात्व, अज्ञान, कषाय, अविरतिरूप बाधक कर्मों का सर्वथा अभाव होता है। इसलिये पूर्वोक्त अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और फिर वृत्ति संक्षयरूप योग का जो क्रम बताया है, उस क्रम से इसका योग सानुबंध होता है, अर्थात् मोक्षप्राप्ति पर्यन्त निरन्तर चालु रहता है। अनुबंध का अर्थ है निरन्तरधारा-जिसकी अविच्छिनधारा निरन्तर आगेआगे बढ़ती है / अपूर्वकरण से अनिवृत्तिकरण, फिर सूक्ष्मसम्पराय फिर यथाख्यात् आदि चारित्र की गुणश्रेणी में बढ़ते- बढ़ते अनुक्रम से अध्यात्मादि योग प्राप्त करके, मोक्ष प्राप्त करता है। और सापायजो दोष से युक्त है उसका योग अशुद्ध है, उसका योगाचरण मिथ्यात्व आदि भावों से युक्त होने