________________ योगबिंदु 215 सर्वसंवर निरोध रूप अवस्था का स्वीकार तथा दूसरा शैल पर्वत उसका ईश शैलेश-मेरूपर्वत, उसके जैसी अडोल अकम्प स्थिति अवस्था शैलेशी / मेरूपर्वत जैसी अडोल स्थिति को शैलेशी कहते हैं // 367 // तात्त्विकोऽतात्त्विकश्चायमिति यच्चोदितं पुरा / तस्येदानीं यथायोगं, योजनाऽत्राभिधीयते // 368 // अर्थ : पूर्व में तात्त्विक और अतात्त्विक रूप जो योग कहा है अब यहाँ उसकी (योग की) यथायोग्य योजना (यथार्थ स्वरूप) कही जाती है // 368 // विवेचन : ग्रंथ के आरम्भ में तात्त्विकयोग और अतात्त्विकयोग, जो दो प्रकार का बताया है, अब कौन सा योग किस व्यक्ति को सम्भव है, कौन सा योग तात्त्विक है, कौन सा अतात्त्विक है, इसको (योजना विभाग) यथायोग्य प्रकार से कहते है // 368|| अपुनर्बन्धकस्यायं, व्यवहारेण तात्त्विकः / अध्यात्मभावनारूपो, निश्चयेनोत्तरस्य तु // 369 // अर्थ : यह अध्यात्मभावनारूपी योग अपुनर्बन्धक को व्यवहार नय से तात्त्विक है। परन्तु चारित्री (भाव चारित्री) को तो निश्चयनय से तात्त्विक है // 369 // विवेचन : पुनः-पुनः संसार भ्रमण करना पड़े, ऐसा उग्रकर्मों का बंध न बान्धने वाले को अपुनर्बन्धक कहते हैं / उसको और सम्यक्दृष्टि को अध्यात्मादि योग व्यवहारनय की अपेक्षा से तात्त्विक-(सच्चा-अकृत्रिम) कहा है, क्योंकि दोनों ही इच्छायोग के अधिकारी है। जीवन में अध्यात्म भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षयरूप योग कब आये ? ऐसे अपूर्व अवसर की प्रतीक्षा में वे सदा रहते हैं, इसलिये सम्यक्दर्शन उनमें अवश्य होता है / सम्यक्दर्शन अध्यात्मादि योग का उपादान कारण है क्योंकि वह अध्यात्मादि वृत्ति संयमरूप कार्य में हेतु बनता है / इस प्रकार (सम्यक्दर्शनरूप) कारण में अध्यात्मादि योग रूप कार्य का उपचार करने से अपुनर्बन्धक और सम्यक्दृष्टि के योग को व्यवहारनय से तात्त्विक (सच्चा) कहा है; निश्चयनय की दृष्टि से नहीं / अपुनर्बन्धक और सम्यक्दृष्टि में शम, संवेग, निर्वेद, आस्तिक्य तथा अनुकम्पा गुण होते हैं / परन्तु अपुनर्बन्धक और सम्यक्दृष्टि की अपेक्षा भावचारित्री का जो अध्यात्मादि योग है वह निश्चयनय से भी तात्त्विक (सच्चा अकृत्रिम) कहा है - वास्तविक मोक्ष में ले जाने वाला है, क्योंकि भावचारित्री में मात्र एक मोक्ष की ही तीव्र अभिलाषा होती है, इसलिये उसमें दोनों दृष्टि से योग तात्त्विक होता है // 369 // सकृदावर्तनादीनामतात्त्विक उदाहृतः / प्रत्यपायफलप्रायस्तथावेषादिमात्रतः // 370 //