________________ 214 योगबिंदु श्रीमद् राजचन्द्रजी ने वृत्तिसंक्षय की स्थिति का सुन्दर वर्णन 'अपूर्व अवसर' में किया है। मन वचन काया ने कर्मनी वर्गणा, छुटे जिहाँ सकल पुद्गल सम्बंध जो ; एवं अयोगि गुणस्थानक त्यां वर्ततुं, महाभाग्य सुखदायक पूर्ण अबंध जो / अपूर्व अवसर यह मनुष्य की अन्तिम पराकाष्ठा है, पूर्णस्थिति है, इस स्थिति में आत्मा पूर्ण शक्ति का अनुभव करता है // 366 / / अतोऽपि केवलज्ञानं, शैलेशीसम्परिग्रहः / मोक्षप्राप्तिरनाबाधा, सदानन्दविधायिनी // 367 // अर्थ : इससे (वृत्ति संक्षय से) केवलज्ञान, शैलेशीकरणपद प्राप्ति और सदानन्ददायिनी अनाबाधित मोक्षप्राप्ति होती हैं // 367|| विवेचन : सर्वमनोवृत्तियों का मूल से क्षय होने पर घाती कर्मों का क्षय होता है, और उसके परिणाम स्वरूप सर्व द्रव्य, गुण, पर्याय को प्रत्यक्ष करने वाला, सर्वदा संपूर्ण उपयोगवाला केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त होता है / केवलज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् संपूर्ण आयुष्यकाल पर्यन्त विचरण कर, जगत के जीवों को मोक्षमार्ग का उपदेश देकर; अघाती कर्मों का क्षय करते हुये शेष कर्मों को विनष्ट करने के लिये केवली समुद्धात करते हैं। और अन्त में शैलेशीपद-मेरूपर्वत जैसी अडोल अकम्पस्थिति को प्राप्त करता है और शैलेशीकरण के पश्चात् शरीर, मन, वचन के सर्वव्यापार से रहित होकर, निराबाध जिसमें कोई भी बाधा रुकावट न डाल सके ऐसे सदा अनन्त व अखण्ड आनन्द को देने वाले शाश्वत सुख के धामरूप मोक्षसुख को प्राप्त करता है / कणाद महर्षि ने मोक्ष को सुख-दुःख का अभावरूप माना है और वैशेषिकों ने 'सुख दुःख व्यवच्छेदरूपा मुक्तिः' माना है / दुःख का व्यवच्छेद तो इष्ट है परन्तु सुख का अभाव किसी को भी इष्ट नहीं / अगर मोक्ष में सुख नहीं तो आत्मा का मोक्ष के लिये सारा परिश्रम व्यर्थ हो जाय / एक कवि ने कहा है "अगर मोक्ष में सुख नहीं तो वृन्दावन में सियार बनना अच्छा है" / अनाबाध में दुःख का अभाव तो आ जाता है परन्तु सदानन्द नहीं आता इसलिये उन लोगों के मन्तव्यों का निषेध करने के लिये तीर्थंकरादि महापुरुषों ने मोक्ष के लिये अनाबाधता और सदानन्दविधायिनी, इन दो विशेषणों को रखा है। शैलेशीकरण को टीकाकार ने दो प्रकार से घटित किया है / 'शीलं-सर्वसंवररूपं तस्येशोऽधिपतिः इति शैलेशः तस्य इयं अवस्था इति शैलेशी तस्याः संपरिग्रह-स्वीकार इति / '