________________ योगबिंदु 213 अर्थ : ऋद्धि के प्रति अप्रवृत्ति, सूक्ष्मकर्मों का क्षय और अपेक्षातन्तु के विच्छेद को इसका (समता का) फल कहा है // 365 / / विवेचन : समतायोग में रमण करने वाले योगी ऋद्धि-सिद्धियों के पीछे नहीं भागते / चारित्रबल से प्राप्त विविध आमर्षऔषधि आदि लब्धियों और सिद्धियों का उपयोग अपने यशोवाद के लिये; जीवन चलाने के लिये; अपने आप को लोकपूज्य बनाने के लिये; लोक में अपनी प्रतिष्ठा जमाने के लिये नहीं करते, क्योंकि ऐसा करने से वे चारित्र के लिये घातक सिद्ध होती है / इसलिये इन लब्धिओं को, श्रीसंघ के आवश्यक कार्य की अपेक्षा बिना, शुद्ध चारित्रधारी साधक उपयोग नहीं करता / वह तो हमेशा अपनी आत्म समाधि में ही लीन रहता है / समता योगी, समता योग से धर्म और शुक्ल ध्यान द्वारा, केवलज्ञान, केवलदर्शन, यथाख्यातचारित्र आदि को आवरण करने वाले कर्मों के सूक्ष्म दलों को भी नष्ट करता है। समतायोग से योगी अपेक्षातन्तु जो कर्म बंध न का मुख्य हेतु है उसका भी विच्छेद-नाश करता है / अपेक्षाएं ही मनुष्य को रागद्वेष की ओर ले जाने वाली है / वह तन्तु मनुष्य के दुःखों का मूल कारण है, समताभाव में जब जीव आ जाता है तब वह तन्तु भी नष्ट हो जाता है / इस प्रकार महापुरुषों ने समता का यह फल बताया है // 365 / / अन्यसंयोगवत्तीनां. यो निरोधस्तथा तथा / अपुनर्भावरूपेण, स तु तत्संक्षयो मतः // 366 // अर्थ : अन्य संयोग (मन-इन्द्रिय-कर्मपुद्गल आदि) से होने वाली वृत्तियों का (अयोगिक केवली काल में), अपुनर्भावरूप से जिसका नाश होने पर पुनरुत्पत्ति नहीं होती, ऐसा मूल से जो क्षय है, वह वृत्ति संक्षय है // 366 / / विवेचन : ग्रंथकर्ता ने इस तत्त्व को अन्तिम बताया है। क्योंकि यह स्थिति आत्मा की पूर्णता की है / आत्मा का सहज स्वभाव निस्तरंग स्वयंभू रमण समुद्र जैसा गम्भीर होता है। परन्तु अनादि काल से अन्यसंयोग-मन-शरीर-कर्मवर्गणादि के कारण आत्मा के अन्दर नाना प्रकार की राग-द्वेष की संकल्प विकल्पात्मक वृत्तियों का जन्म होता है। ऐसी वृत्तियों का अपुनर्भावरूप से, अर्थात् जिसका नाश होने पर पुनः उसकी उत्पत्ति नहीं होती, ऐसे मूल से नाश केवलज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् जब अयोगिकेवली की स्थिति प्राप्त होती है, तब होता है / इस प्रकार उन सर्व वृत्तियों का सर्वथा क्षय हो जाने को वृत्तिसंक्षय कहते हैं / वृत्तियों को समुद्र में तरंगों की उपमा दी है। आत्मा के अन्दर वृत्तियों का जन्म अन्यसंयोग निमितिक है। उन वृत्तियों का नाश ज्ञान, ध्यान, संयम, तप, जप, संवर द्वारा कम करते-करते अन्त में अयोगिकेवली के समय संपूर्ण क्षय हो जाता है / आनन्दघनजी ने भी पद्मप्रभु के स्तवन में सुन्दर कहा है : कनकोपलवत् पयडी पुरुष तणी रे जोडी अनादि स्वभाव / अन्य संयोगे जिहाँ लगे आत्मा रे संसारी कहेवाय /