________________ 210 योगबिंदु अनादिकाल से ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय आदि कर्म प्रकृतियों ने आत्मा की शक्ति को दबाकर रखा है, इसीलिये इसे पापमय कहा है / इसका नाश भी अध्यात्मयोग से होता है / अन्तरायकर्म के उदय से आत्मा की जो वीर्यशक्ति निस्तेज हो कर पड़ी थी वह भी इस योग से प्रकट होती है, इसलिये इस योग से आत्मसत्त्व-आत्मा का पराक्रम विकसित होता है / शील - पवित्र आचार-विचारों के सेवन से, चित्त में अनुपम समाधि-शान्ति का अनुभव होता है, अर्थात् अध्यात्मयोगी को मन, वचन, काया की स्थिरता होने से आर्त या रौद्र ध्यान से दुष्ट संकल्प-विकल्प का अभाव होता है। मन के संकल्प विकल्प शान्त होकर एकाग्रता आती है / शाश्वत ज्ञान - जो ज्ञान कभी नष्ट नहीं होता ऐसे केवल ज्ञान की प्राप्ति होती है, तथा इसी अध्यात्म से अनुभव सिद्ध अमरत्व-मोक्ष की प्राप्ति होती है / इसी जीवन में वह देहातीत अवस्था मोक्ष का अनुभव करता है, क्योंकि दारुण दुःख देने वाले राग द्वेषादि कर्म उसके नष्ट हो जाते हैं / दुःख का बीज ही नष्ट हो जाता है, इसलिये परमशान्ति का अनुभव होता है // 359 // अभ्यासोऽस्यैव विज्ञेयः, प्रत्यहं वृद्धिसङ्गतः / मनः समाधिसंयुक्तः पौनः पुन्येन भावना // 360 // अर्थ : मन की समाधि से संयुक्त, नित्यवृद्धि पाने वाला अध्यात्मयोग का प्रतिदिन (पुनः पुनः) बार-बार जो अभ्यास (रटन) है वह भावना-योग है // 360 // विवेचन : अध्यात्म योग के, केवल पुन:-पुनः अभ्यास को ही भावनायोग नहीं कहा, लेकिन कहा है कि वह अभ्यास वृद्धि संगत और मन की समाधि से संयुक्त हो / अर्थात् अभ्यास में अरुचि, खेद, प्रमाद (आलस्य) आदि दोष न आने पावे; उस अभ्यास से निरन्तर भावों में वृद्धि होनी चाहिये; सतत प्रगतिशील अभ्यास हो और मन को उस अभ्यास से समाधि-परमशान्ति का अनुभव होना चाहिये, तभी वह अभ्यास भावना योग कहा जा सकता है अन्यथा नहीं // 360 // निवृत्तिरशुभाभ्यासाच्छुभाभ्यासानुकूलता / तथा सुचित्तवृद्धिश्च, भावनायाः फलं मतम् // 361 // अर्थ : भावना का फल यह है कि इससे अशुभाभ्यास से निवृत्ति, शुभाभ्यास की अनुकूलता तथा सुचित्तवृद्धि-शुभोत्कर्षरूप भावना की वृद्धि होती है // 361 / / विवेचन : अध्यात्मभावना का बार-बार पुनरावर्तन करने से जो काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेषादि अशुभ प्रवृत्ति का अनादि काल से अभ्यास था, उसकी निवृत्ति अर्थात् नाश हो जाता है / अनादिकाल से जीव, काम अर्थात् इन्द्रियों के 23 विषयों में भोग की इच्छा से आसक्त रहकर, नाना प्रकार की पापमय प्रवृत्ति करता है / क्रोध से अपने विरोधी के नाश की भावना रखता