________________ 208 योगबिंदु अर्थ : जो ऐसा नहीं अर्थात् जिसमें मार्गानुसारित्वादि चिह्न नहीं, उसका चारित्र तो शब्दमात्र है और मार्गानुसारी का (चारित्र भी) कर्मों की विचित्रता से विकल हो सकता है // 356 // विवेचन : उपर दो श्लोकों में जो मार्गानुसारित्व बताया है, वह चारित्री का विशेष लक्षण है। ग्रंथकार कहते हैं कि अगर यह मार्गानुसारित्व गुण न हो तो चारित्री का चारित्र चाहे देशविरति चारित्र हो या सर्वविरति, वह नाममात्र का है क्योंकि उसमें मार्गानुसारित्व अर्थात् मोक्ष के साथ मिलाप करवाये ऐसा धर्ममार्ग में गमन करने का चिह्न-लक्षण नहीं होता / इसलिये बाहर से देशविरति या साधुवेश भले ही हो, वह व्यवहार से चारित्री कहा जा सकता है परन्तु वस्तुतः भाव चारित्र का वहा अभाव होता है। यदि कोई ऐसा कहता है कि अविरत सम्यक्दृष्टि में मार्गानुसारित्व गुण तो होता है परन्तु उनमें चारित्र नहीं होता; ऐसा क्यों ? तो कहते हैं कि सम्यक्दृष्टि आत्मा में मार्गानुसारित्व गुण होने पर भी कभी-कभी कर्मों की विचित्रता से, निकाचित कर्मों के कारण, वैकल्य-चारित्रहीनता आ जाती है। कभी-कभी निकाचित अशुभकर्मों का ऐसा तीव्र उदय होता है कि उससे चारित्र की सहज शक्ति दब जाती है / इसी कारण श्रेणिक राजा, श्रीकृष्ण वासुदेव आदि में सम्यकदृष्टि, मार्गानुसारित्व गुण होने पर भी वे देशविरति चारित्र या सर्वविरति चारित्र को धारण न कर सके। शास्त्रों में कहा है : कम्माइ नूणं, धनचिक्कणाई, गरुयाई वज्जसाराई / नाणड्डयंपि पुरिसं, पहाओ उप्पहं नेन्ति // मार्गानुसारी के जैसा क्षायिक, क्षयोपशम, उपशम भाव का सम्यक्त्व होने पर भी भूल से घातीकर्म की अत्यन्त चिकनाहट होने से, अत्यन्त वज्र जैसे कठोर कर्मदलों की बहुलता से, सूत्र और अर्थ के सम्यक् ज्ञाता-परम पुरुषार्थी प्रभावक महापुरुष भी चारित्र से गिर जाते हैं, पतित हो जाते हैं; आगे नहीं बढ़ सकते; चारित्र रहित उन्मार्गगामी हो जाते है / इसमें मात्र मोहनीय कर्म की विचित्रता ही एकमात्र हेतु है। कहने का तात्पर्य यह है कि सभी उपरोक्त गुण होने पर भी कभीकभी बड़े-बड़े ऋषि, मुनि, तपस्वी, ज्ञानी भी कर्मों के गाढ़ बंध न के सामने असफल हो जाते हैं / कर्म, जीत जाते है और ज्ञानी-योगी-मुनि हार जाते हैं / कर्म प्रबल हो जाते हैं // 356 / / देशादिभेदतश्चित्रमिदं चोक्तं महात्मभिः / अत्र पूर्वोदितो योगोऽध्यात्मादिः संप्रवर्तते // 357 // अर्थ : महात्माओं ने देशादिभेद से इसे (चारित्र को) नाना प्रकार का बताया है, और चारित्र सिद्ध होने पर पूर्वोक्त अध्यात्मादि योग प्रवृत्त होता है // 357 // विवेचन : जिनेश्वर भगवन्तों ने और गणधरादि महात्माओं ने देशविरति, सर्वविरति आदि भेद से चारित्र को नाना प्रकार का बताया है। देश(अंश) से पाप से बचना देशविरति चारित्र है